SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिच्छेद.] शंखधमक, वानर और सिद्धि बुद्धि. १३५ खुशी होती हुई 'सिद्धि' अपने मकानपे चली आती है। थोड़ेही दिनोंमें क्रमसे 'सिद्धि' के यहां 'बुद्धि' से भी अधिक द्रव्य होगया। 'सिद्धि' को अधिक द्रव्यवाली देखके 'बुधिके मनमें भी अधिक धनका लोभ लगा, इस लिए उसने अपनी इच्छा पूर्ण करनेके लिए 'यक्ष' की आराधना फिरसे करनी शुरु की । यक्षराज फिर प्रसन्न होकर बोला-माँग भद्रे! क्या चाहिये ? । ___'बुद्धि' बोली-जो कुछ आपने 'सिद्धि' को दिया है वही वस्तु उससे अधिक मुझे दो । 'यक्षराज' की तो जबानही हिलती थी, उसने कहा अच्छा आजसे ऐसाही होगा। इस बातकी खबर ‘सिद्धि' को पड़ गई, उसके दिलमें 'बुद्धि' को देखकर बड़ीही ईर्षा पैदा होती थी। मगर उसकी कुछ भी पेश न चलती। 'सिद्धि' ने उस 'भोलक' यक्षकी आराधना फिरसे शुरु की और थोड़ेही दिनोंके बाद उसकी पूजासेवासे प्रसन्न होकर जब ' यक्षराज' ने उसे वर माँगनेका कहा तब 'सिद्धि' ने विचारा कि अब के कोई ऐसी चीज यक्षराजसे माँगू जो कदापि 'बुद्धि' उससे दूना माँगे तो उसका अपकारही होवे, यह विचारके 'सिद्धि' 'यक्षराज' को बोली-हे यक्षराज! यदि आप मुझपर प्रसन्न हो तो मैं आपसे इतनाही माँगती हूँ कि आप मेरी एक आँख फोड़ डालें, यक्षराज' ने भी वैसाही किया, उसके कहे मुजब उसे कानी कर दी। . 'बुद्धि' को मालूम हुआ कि 'सिद्धि' ने यक्षराजकी फिरसे आराधना करके कुछ लिया है इस लिए उसने फिर तीसरी दफे यक्षराजकी आराधना की और जब उसकी आराधनासे 'यक्ष' प्रसन्न होकर वर देनेको बोला तब उसने यही माँगा कि जो कुछ आपने सिद्धिको दिया है मुझेभी वही उससे
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy