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________________ परिच्छेद.] शंखधमक, वानर और सिद्धि बुद्धि. १३१ मान स्वभाववाली स्त्रियोंके सुखकी इच्छा करके मैं दुर्गतिका भागी बनना नहीं चाहता | ' नमः सेना' हाथ जोड़कर बोली स्वामिन्! आप अधिक सुखकी इच्छा से 'सिद्धि और बुद्धि' नामा वृद्धाओंके समान पश्चातापको प्राप्त होवोगे । जैसे किसी एक गाँव में 'बुद्धि' तथा 'सिद्धि' ये दो नामवाली बुढिया रहती थीं, उन दोनोंका परस्पर बड़ा स्नेह था परन्तु दोनों बहुत गरीब हालतमें थीं, उसी नगरके बाहर सेवक लोगोंकी कामनायें पूर्ण करनेवाला 'भोलक' नामका एक यक्ष रहता था । ' बुद्धि' उस यक्षकी आराधना करने लगी, प्रतिदिन प्रातःकाल वहां जाकर उसके 'मठ' को साफ करती है और अच्छे निर्मल पानीसे छिड़काव करके नैवेद्य वगैरह. पूजाकी सामग्री से उसकी पूजा करती है। 'बुद्धि' को इस प्रकार यक्षकी आराधना करते बहुतसे दिन बीत गये, उसकी सच्ची सेवासे प्रसन्न होकर एक दिन 'भोलक' यक्ष उसे प्रत्यक्ष हुआ और कहने लगा 'बुद्धि' जो तेरी इच्छा हो सो माँग ले मैं तेरी सेवा से प्रसन्न हूँ । 'बुद्धि' वोली - महाराज यदि आप संतुष्ट हैं तो मैं इतनाही माँगती हूँ मेरी स्थिति बहुत साधारण है, किसी दिन तो पेटभर रोटी भी नहीं मिलती, अब आपकी कृपा से मेरा गुजारा अच्छी तरह होवे मैं इतनाही चाहती हूँ । यक्षराज बोलेअच्छा तेरा गुजारा अच्छी तरह चलेगा, मेरे मठके पीछे प्रातःकाल आकर तूने हमेशा खोदना वहांसे तुझे प्रतिदिन एक सुवर्णकी मुहर मिला करेगी, उससे तेरा निर्वाह बड़ी अच्छी तरहसे होजायगा । 'बुद्धि' वैसाही करने लगी, उससे प्रतिदिन यक्षके कहे मुजब एक सुवर्णकी मुहोर मिलने लगी। प्रथम तो पेटभर रोटियें भी नहीं मिलती थीं मगर रोजकी रोज सुवर्णकी मुहोर
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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