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________________ परिच्छेद.] नूपुर पंडिता. १०३ अपने चिरकालके विरह दुःखको दूर कर यथेच्छ मनोभिलाष पूर्ण किया । जब वे दोनों काम संभोगके श्रमसे थक गये तब उन्हें 'चंद्रमा की शीतल चाँदनी तथा मन्द पवन लगनेसे कुछ निद्रा आगई । दैवयोग जिस वक्त वे गलेमें हाथ डाले और एक हाथ सिरके नीचे दिये तथा एक दूसरेकी जाँगपर जाँग चढ़ाये सो रहे थे उस वक्त 'देवदत्त' को जंगल जानेकी हाजत होगई अत एव वह अपनी चार पाईसे उठकर और पानीका लोटा भरके उसी 'अशोकवाड़ी' में पहुँचा जहांपर 'दुर्गिला' और उसका जारपुरुष सोये पड़े थे। . 'देवदत्त' उन दोनोंको उस अवस्थामें देखकर चकित होगया और विचारने लगा कि धिक्कार हो इस कुलटा स्नुषा' को जो निर्लज्ज होकर परपुरुषके साथ सो रही है। 'देवदत्त' पूर्ण तया उस जार पुरुषको पैछान न सका अत एव वह निश्चय करनेके लिए फिर अपने घरमें गया परन्तु वहां जाकर देखा तो उसका पुत्र 'देवदिन्न' तो सोरहा है और 'दुर्गिला' का पताही नहीं । 'देवदत्त' ने निश्चय कर लिया कि यह राँड अवश्यही पुंश्चली है, देखो कैसी निरभय होकर परपुरुषके साथ दुराचरण कर रही है और देखनेमें कैसी सुशीला मालूम होती है । अब पुत्रको किस तरह निश्चय कराऊँ कि यह असती है। इस वक्त यह सघन निद्रामें सो रही है यदि मैं इसके पाँवसे नूपुर निकाल लूं और प्रातःकाल जब मैं उस नूपुरको अपने पुत्रको दिखाऊँगा तब वह मेरे कथनको सत्य मान लेगा, यह विचारकर उसने चोरके समान धीरेसे. 'दुर्गिला' के पाँवसे "नूपुर' १ लड़केकी बहु. ..
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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