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________________ १०० परिशिष्ट पर्व. . [भाठवा. • समय उसने क्रोध आकर स्याहीसे भरे हुवे हाथकी मेरी कमर· पर बड़े जोरसे एक चपेट लगाई । यह कहकर 'तापसी' ने अपनी पीठपर 'दुर्गिला' की मारी हुई चपेट दिखाई । उस चपेटमें स्याहीसे भरी हुई पाँचों अंगुलियां स्पष्ट मालूम होती थीं, इस लिए उस युवा पुरुषने 'दुर्गिला' के आशयको समझ लिया कि उसने मुझे कृष्णपंचमीके दिन मिलनेका संकेत दिया है । इस संकेतसे मालूम होता है कि वह बड़ी चतुरा है, देखो तो सही उसने किस प्रकार अपने भात्रको छिपाकर मुझे पंचमीका संकेत दिया । इस तरह उसकी चतुराईकी प्रशंसा करता हुआ विचारने लगा अहो! अभीतक भी उस सुन्दरीके मिलापमें बड़ा भारी अंतराय होरहा है. उसने दिनका संकेत तो दिया परन्तु किसी हेतुसे स्थानका संकेत न देसकी, इस लिए अभी तक भी कार्य अधुराही रहा । यह विचारके फिर उसी तापसीसे कहने लगा कि, माई तू उसका आशय नहीं समझी वह मेरे ऊपर पूर्ण प्रेमवाली है, तू उसकी गाली गुपतारपे कुछ खयाल मत कर मैं तुझे बहुतसा धन दूंगा तू मेरी प्रार्थना स्वीकार करके एक दफे फिर उसके मकानपर जा और पूर्ववत प्रार्थना कर । 'योगन' बोली-अरे मूढ ! क्यों अपने मनको नाहक भटकाता है ? तेरी कार्यसिद्धि बड़ी दुर्लभ है मुझे भेजकर फिरसे क्यों उस विचारी सतीके चित्तको संतप्त करता है वह तो तेरा नाम तक भी सुनना नहीं चाहती और तू उसके ऊपर लटु होरहा है, ऐसी जगह मेरा फिरसे जाना ठीक नहीं, यह सुनकर वह युवा 'पुरुष' बोला-माई ! चाहे जो हो परन्तु मेरी प्रार्थना स्वीकार कानीही पड़ेगी। तापसी बोली-को खैर मैं फिर जाती. हूँ परन्तु अपेसिद्धि में वो निःसंदेह संदेह है पर चॉपर मेरा तिरस्कार होनमें
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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