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________________ ९२ परिशिष्ट पर्व. _ [सातवाँ अच्छा नहीं, जो कुछ ईश्वरने दिया है उसेही संतोषपूर्वक भोगना उचित है, क्योंकि असंतोषी पुरुष व्याजके लोभमें आकर अपने मूलको भी खो बैठता है । इस लिए अपनेको मनुष्यल सुखमें किसी प्रकारकी त्रुटि नहीं है, अब अधिक लोभ करना यह ठीक नहीं । इस प्रकार स्वीके निषेध करनेपर भी वह नव युवा पुरुष न रह सका, देववकी इच्छासे पूर्वोक्त तीर्थमें फिरसे झंपापात किया । हम पहले कह आये हैं कि उस तीर्थका यह प्रभाव था कि जो पशुसे मनुष्यपनेको प्राप्त हुआ हो वह यदि फिरसे झंपापात करे तो अपने असली स्वरूपमें आजाता था। इसलिए वह पुरुष पड़तेही अपने असली स्वरूप वानरपनेको प्राप्त होगया और अपनी वैसी दशा देखकर बड़ा पश्चात्ताप करने लगा परन्तु अब कर क्या सकता था । उस स्त्रीको भी फिरसे पड़नेके लिए बहुतही इसारे किये परन्तु वह कब पड़ने लगी थी। अब वह वानर पशुवृत्तिसे अपने जीवनको व्यतीत करता है और वह वियोगिनी सुन्दरी बिचारी अकेली जंगलमें वनवृत्तिसे अपने समयको व्यतीत करती है । एक दिन वह सुन्दरी गंगाकी मिट्टीका तिलक लगाकर लताके समान केशोंको खोलकर केतकीके पुष्पोंका मुकुट धारणकर और नलिनीकी नालोंका हार गलेमें पहरके एक वृक्षके नीचे बैठी थी । दैवयोग उसमय उस जंगलमें राजपुरुष सिकार खेलते फिर रहे थे, उन्होंने अपसराके समान रूपवाली उस सुन्दरीको उस निर्जन वनमें देखके बड़ा आश्चर्य माना और विचारने लगे कि क्या ये जंगलकी अधिष्ठात्री देवी है? या कोई देवाङ्गना इस अरन्यमें क्रीड़ा करनेको आई है ? इस प्रकार साश्चर्य उन राजपुरुषोंने उस सुन्दरीके पास जाकर उसका वृत्तान्त पूछा, उन राजपुरुषोंको देखकर उस बिचारी डरती
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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