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________________ ८८ गाथा समयसार देखता । जानना ॥ इस भाँति प्रज्ञा ग्रहे कि मैं हूँ वही जो अवशेष जो हैं भाव वे मेरे नहीं यह इस भाँति प्रज्ञा ग्रहे कि मैं हूँ वही जो जानता । अवशेष जो हैं भाव वे मेरे नहीं यह जानना ॥ प्रज्ञा के द्वारा इसप्रकार ग्रहण करना चाहिए कि जो चेतनेवाला है, वह निश्चय से मैं ही हूँ। शेष सभी भाव मेरे से भिन्न ही हैं। प्रज्ञा के द्वारा इसप्रकार ग्रहण करना चाहिए कि जो देखनेवाला है, वह निश्चय से मैं ही हूँ; शेष जो भाव हैं, वे मुझसे पर हैं - ऐसा जानना चाहिए । प्रज्ञा के द्वारा इसप्रकार ग्रहण करना चाहिए कि जो जाननेवाला है, वह निश्चय से मैं ही हूँ; शेष जो भाव हैं, वे मुझसे पर हैं - ऐसा जानना चाहिए । ( ३०० ) को णाम भणिज्ज बुहो णादुं सव्वे पराइए भावे । मज्झमिणं ति य वयणं जाणंतो अप्पयं सुद्धं ॥ निज आतमा को शुद्ध अर पररूप पर को जानता । है कौन बुध जो जगत में परद्रव्य को अपना कहे ॥ अपने शुद्ध आत्मा को जाननेवाला और सर्व परभावों को पर जानने वाला कौन ज्ञानी ऐसा होगा कि जो यह कहेगा कि ये परपदार्थ मेरे हैं ? तात्पर्य यह है कि कोई भी समझदार व्यक्ति यह नहीं कहता कि परपदार्थ मेरे हैं तो फिर आत्मज्ञानी व्यक्ति ऐसी बात कैसे कह सकता है ? (३०१ से ३०३ ) थेयादी अवराहे जो कुव्वदि सो उ संकिदो भमइ । मा बज्झेज्जं केण वि चोरी त्ति जणम्हि वियरंतो ।। जो कुदि अवराह सो णिस्संको दु जणवदि भमदि । ण वि तस्स बज्झितुं जे चिंता उप्पज्जदि कयाइ ॥
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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