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________________ बंधाधिकार अभव्यजन श्रद्धा करें रुचि धरें अर रच-पच रहें। जो धर्म भोग निमित्त हैं न कर्मक्षय में निमित्त जो॥ जिनवरदेव के द्वारा कहे गये व्रत, समिति, गुप्ति, शील और तप करते हुए भी अभव्यजीव अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि है । मोक्ष की श्रद्धा से रहित वह अभव्यजीव यद्यपि शास्त्रों को पढ़ता है; तथापि ज्ञान की श्रद्धा से रहित उसको शास्त्रपठन गुण नहीं करता। तात्पर्य यह है कि शास्त्रपठन से उसे असली लाभ प्राप्त नहीं होता। वह अभव्यजीव भोग के निमित्तरूप धर्म की ही श्रद्धा करता है, उसकी ही प्रतीति करता है, उसी की रुचि करता है और उसी का स्पर्श करता है; किन्तु कर्मक्षय के निमित्त रूप धर्म की वह न तो श्रद्धा करता है, नरुचि करता है, न प्रतीति करता है और न वह उसका स्पर्श ही करता है। (२७६-२७७) आयारादी णाणं जीवादी दंसणं च विण्णेयं । छज्जीवणिकं च तहा भणदि चरित्तं तु व्यवहारो॥ आदा खु मज्झ णाणं आदा मे दंसणं चरित्तं च । आदा पच्चक्खाणं आदा मे संवरो जोगो॥ जीवादि का श्रद्धान दर्शन शास्त्र अध्ययन ज्ञान है। चारित्र है षट्काय रक्षा – यह कथन व्यवहार है। निज आतमा ही ज्ञान है दर्शन चरित भी आतमा । अर योग संवर और प्रत्याख्यान भी है आतमा॥ आचारांगादिशास्त्रज्ञान है, जीवादितत्त्व दर्शन है और छह जीवनिकाय चारित्र है - ऐसा व्यवहारनय कहता है। निश्चय से मेरा आत्मा ही ज्ञान है, मेरा आत्मा ही दर्शन है, मेरा आत्मा ही चारित्र है, मेरा आत्मा ही प्रत्याख्यान है और मेरा आत्मा ही संवर व योग है।
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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