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________________ माथा समयसार आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू । आउं च ण देसि तुमं कह तए जीविदं कदं तेसिं। आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्ह । आउं च ण दिति तुहं कहं णु ते जीविदं कदं तेहिं। मैं मारता हूँ अन्य को या मुझे मारें अन्यजन। यह मान्यता अज्ञान है जिनवर कहें हे भव्यजन ।। निज आयुक्षय से मरण हो यह बात जिनवर ने कही। तुम मार कैसे सकोगे जब आयु हर सकते नहीं। निज आयुक्षय से मरण हो यह बात जिनवर ने कही। वे मरण कैसे करें तब जब आयु हर सकते नहीं। मैं हूँ बचाता अन्य को मुझको बचावे अन्यजन। यह मान्यता अज्ञान है जिनवर कहें हे भव्यजन|| सब आयु से जीवित रहें - यह बात जिनवर ने कही। जीवित रखोगे किसतरह जब आयु दे सकते नहीं। सब आयु से जीवित रहें यह बात जिनवर ने कही। कैसे बचावें वे तुझे जब आयु दे सकते नहीं॥ जो यह मानता है कि मैं पर जीवों को मारता हूँ और पर जीव मुझे मारते हैं; वह मूढ़ है, अज्ञानी है और जो इससे विपरीत है अर्थात् ऐसा नहीं मानता है; वह ज्ञानी है। जीवों का मरण आयुकर्म के क्षय से होता है - ऐसा जिनवरदेव ने कहा है। तू परजीवों के आयुकर्म को तो हरता नहीं है; फिर तूने उनका मरण कैसे किया ? जीवों का मरण आयुकर्म के क्षय से होता है - ऐसा जिनवरदेव ने कहा है । पर जीव तेरे आयुकर्म को तो हरते नहीं हैं; फिर उन्होंने तेरा मरण कैसे किया ? जो जीव यह मानता है कि मैं परजीवों को जिलाता हूँ और परजीव
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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