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________________ ६६ -गाथा समयसार तह णाणिस्स वि विविहे सच्चित्ताचित्तमिस्सिए दव्वे । भुंजंतस्स वि णाणं ण सक्कमण्णाणदं णेदुं ।। जड़या स एव संखो सेदसहावं तयं पजहिदूण । गच्छेज्ज किण्हभावं तझ्या सुक्कत्तणं पजहे ।। तह णाणी वि हु जड़या णाणसहावं तयं पजहिदूण । अण्णाणेण परिणदो तइया अण्णाणदं गच्छे || ज्यों अचित्त और सचित्त एवं मिश्र वस्तु भोगते । भी शंख के शुक्लत्व को ना कृष्ण कोई कर सके | त्यों अचित्त और सचित्त एवं मिश्र वस्तु भोगते । भी ज्ञानि के ना ज्ञान को अज्ञान कोई कर सके | जब स्वयं शुक्लत्व तज वह कृष्ण होकर परिणमे । तब स्वयं ही हो कृष्ण एवं शुक्ल भाव परित्यजे ॥ इस ही तरह जब ज्ञानिजन निजभाव को परित्याग कर । अज्ञानमय हों परिणमित तब स्वयं अज्ञानी बनें ॥ जिसप्रकार अनेक प्रकार के सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों को भोगते हुए, खाते हुए भी शंख का श्वेतभाव कृष्णभाव को प्राप्त नहीं होता, शंख की सफेदी को कोई कालेपन में नहीं बदल सकता; उसीप्रकार ज्ञानी भी अनेक प्रकार के सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों को भोगे तो भी उसके ज्ञान को अज्ञानरूप नहीं किया जा सकता । जिसप्रकार जब वही शंख स्वयं उस श्वेत स्वभाव को छोड़कर कृष्णभाव ( कालेपन) को प्राप्त होता है; तब काला हो जाता है; उसीप्रकार ज्ञानी भी जब स्वयं ज्ञानस्वभाव को छोड़कर अज्ञानरूप परिणमित होता है, तब अज्ञानता को प्राप्त हो जाता है । ( २२४ से २२७ ) पुरिसो जह को वि इहं वित्तिणिमित्तं तु सेवदे रायं । तो सो वि देदि राया विविहे भोगे सुहुप्पाए ।।
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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