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________________ निर्जराधिकार यह परद्रव्यरूप परिग्रह छिद जाये, भिद जाये, कोई इसे ले जाये अथवा नष्ट हो जाये, प्रलय को प्राप्त हो जाये; अधिक क्या कहें - चाहे जहाँ चला जाये; - इससे मुझे क्या ? क्योंकि यह परिग्रह वास्तव में मेरा है ही नहीं। (२१० से २१४) अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदे धम्म। अपरिग्गहो दु धम्मस्स जाणगो तेण सो होदि। अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदोणाणी य णेच्छदि अधम्म। अपरिग्गहो अधम्मस्स जाणगो तेण सो होदि। अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदे असणं। अपरिग्गहो दु असणस्स जाणगो तेण सो होदि।। अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदे पाणं। अपरिग्गहो दु पाणस्स जाणगो तेण सो होदि।। एमादिए दु विविहे सव्वे भावे य णेच्छदे णाणी। जाणगभावो णियदो णीरालंबो दु सव्वत्थ ।। है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे धर्म को। है परिग्रह ना धर्म का वह धर्म का ज्ञायक रहे। है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे अधर्म को। है परिग्रह ना अधर्म का वह अधर्म का ज्ञायक रहे। है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे असन को। है परिग्रह ना असन का वह असन का ज्ञायक रहे। है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे पेय को। है परिग्रह ना पेय का वह पेय का ज्ञायक रहे। इत्यादि विध-विध भाव जो ज्ञानी न चाहे सभी को। सर्वत्र ही वह निरालम्बी नियत ज्ञायकभाव है। अनिच्छुक को अपरिग्रही कहा है और ज्ञानी पुण्यरूप धर्म को नहीं
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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