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________________ संवराधिकार एवं जाणदि णाणी अण्णाणी मुणदि रागमेवादं। अण्णाणतमोच्छण्णो आदसहावं अयाणंतो।। ज्यों अग्नि से संतप्त सोना स्वर्णभाव नहीं तजे। त्यों कर्म से संतप्त ज्ञानी ज्ञानभाव नहीं तजे॥ जानता यह ज्ञानि पर अज्ञानतम आछन्न जो। वे आतमा जाने न माने राग को ही आतमा॥ __ जिसप्रकार सुवर्ण अग्नि से तप्त होता हुआ भी अपने सुवर्णत्व को नहीं छोड़ता; उसीप्रकार ज्ञानी कर्मोदय से तप्त होता हुआ भी ज्ञानीपने को नहीं छोड़ता – ज्ञानी ऐसा जानता है और अज्ञानी अज्ञानान्धकार से आच्छादित होने से आत्मा के स्वभाव को न जानता हुआ राग को ही आत्मा मानता है। (१८६) सुद्धं तु वियाणंतो सुद्धं चेवप्पयं लहदि जीवो। जाणंतो दु असुद्धं असुद्धमेवप्पयं लहदि। जो जानता मैं शुद्ध हूँ वह शुद्धता को प्राप्त हो। जो जानता अविशुद्ध वह अविशुद्धता को प्राप्त हो। शुद्धात्मा को जानता हुआ, अनुभव करता हुआ जीव शुद्धात्मा को ही प्राप्त करता है और अशुद्धात्मा को जानता हुआ, अनुभव करता हुआ जीव अशुद्धात्मा को ही प्राप्त करता है। (१८७ से १८९) अप्पाणमप्पणा रुधिऊण - दोपुण्णपावजोगेसु। दंसणणाणम्हि ठिदो इच्छाविरदो य अण्णम्हि ।। जो सव्वसंगमुक्को झायदि अप्पाणमप्पणो अप्पा। ण वि कम्मं णोकम्मं चेदा चिंतेदि एयत्तं ।। अप्पाणं झायंतो दसणणाणमओ अणण्णमओ। लहदि अचिरेण अप्पाणमेव सो कम्मपविमुक्कं ।।
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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