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________________ आस्रवाधिकार (१७०-१७१) चउविह अणेयभेयं बंधते णाणदंसणगुणेहिं। समए समए जम्हा तेण अबंधो ति णाणी दु॥ जम्हा दुजहण्णादोणाणगुणादो पुणो वि परिणमदि। अण्णत्तं णाणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिदो।। प्रतिसमय विध-विध कर्म को सब ज्ञान-दर्शन गुणों से। बाँधे चतुर्विध प्रत्यय ही ज्ञानी अबंधक इसलिए। ज्ञानगुण का परिणमन जब हो जघन्यहि रूप में। अन्यत्व में परिणमे तब इसलिए ही बंधक कहा। चार प्रकार के द्रव्यास्रव (द्रव्यप्रत्यय) ज्ञानदर्शन गुणों के द्वारा समयसमय पर अनेक प्रकार के कर्मों को बाँधते हैं, इसकारण ज्ञानी तो अबंध ही है; क्योंकि ज्ञानगुण जघन्य ज्ञानगुण के कारण फिर भी अन्यरूप से परिणमन करता है; इसलिए वह ज्ञानगुण कर्मों का बंधक कहा गया है। (१७२) दंसणणाणचरित्तं जं परिणमदे जहण्णभावेण । णाणी तेण दु बज्झदि पोग्गलकम्मेण विविहेण ।। ज्ञान-दर्शन-चरित गुण जब जघनभाव से परिणमे । तब विविध पुद्गल कर्म से इसलोक में ज्ञानी बँधे । क्योंकि उक्त ज्ञानी के दर्शन, ज्ञान और चारित्र जघन्यभाव से परिणमित होते हैं; इसलिए ज्ञानी अनेक प्रकार के पुद्गलकर्म से बँधता है। (१७३ से १७६) सव्वे पुव्वणिबद्धा दु पच्चया अत्थि सम्मदिट्ठिस्स। उवओगप्पाओगं बंधते कम्मभावेण ।। होदूण णिरुवभोज्जा तह बंधदिजह हवंति उवभोज्जा। सत्तट्ठविहा भूदा .....णाणावरणादिभावेहिं ।।
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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