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________________ ४२ गाथा समयसार दोनों नयों को जानते पर ना-ग्रहे नयपक्ष को। नयपक्ष से परिहीन पर निज समय से प्रतिबद्ध वे|| नयपक्ष से रहित जीव समय से प्रतिबद्ध होता हुआ, चित्स्वरूप आत्मा का अनुभव करता हुआ दोनों ही नयों के कथनों को मात्र जानता ही है, किन्तु नयपक्ष को किंचित्मात्र भी ग्रहण नहीं करता। (१४४) सम्मइंसणणाणं एसो लहदि त्ति णवरि ववदेसं। सव्वणयपक्खरहिदो भणिदो जो सो समयसारो। विरहित सभी नयपक्ष से जो वह समय का सार है। है वही सम्यग्ज्ञान एवं वही समकित सार है॥ जो सर्वनयपक्षों से रहित कहा गया है, वह समयसार है। इसी समयसार को ही केवल सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान - ऐसी संज्ञा (नाम) मिलती है। तात्पर्य यह है कि नामों से भिन्न होने पर भी वस्तु एक ही है। (हरिगीत ) सब पुद्गलों में है स्वभाविक परिणमन की शक्ति जब । और उनके परिणमन में है न कोई विघ्न जब ।। क्यों न हो तब स्वयं कर्ता स्वयं के परिणमन का। सहज ही यह नियम जानो वस्तु के परिणमन का ||६४|| आतमा में है स्वभाविक परिणमन की शक्ति जब। और उसके परिणमन में है न कोई विघ्न जब ।। क्यों न हो तब स्वयं कर्ता स्वयं के परिणमन का। सहज ही यह नियम जानो वस्तु के परिणमन का ||६५|| इसप्रकार पुद्गलद्रव्य की स्वभावभूत परिणामशक्ति निर्विघ्न सिद्ध हुई और उसके सिद्ध होने पर पुद्गलद्रव्य अपने जिस भाव को करता है, उसका वह पुद्गलद्रव्य ही कर्ता है। इसप्रकार जीव की स्वभावभूत परिणमनशक्ति निर्विघ्न सिद्ध होने पर जीव अपने जिस भाव को करता है, उस भाव का कर्ता होता है। -समयसार कलश पद्यानुवाद )
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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