SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्ताकर्माधिकार जिसप्रकार स्वर्णमयभाव में से स्वर्णमय कुण्डल आदि बनते हैं और लोहमय भाव में से लोहमय कड़ा आदि बनते हैं। उसीप्रकार अज्ञानियों के अनेकप्रकार के अज्ञानमय भाव होते हैं और ज्ञानियों के सभी भाव ज्ञानमय होते हैं। (१३२ से १३६) अण्णाणस्स स उदओ जा जीवाणं अतच्चउवलद्धी। मिच्छत्तस्स दु उदओ जीवस्स असदहाणत्तं ।। उदओ असंजमस्स दु जं जीवाणं हवेइ अविरमणं । जो दु कलुसोवओगो जीवाणं सो कसाउदओ।। तं जाण जोग उदयं जो जीवाणं तु चिट्ठउच्छाहो। सोहणमसोहण वा कायव्वो विरदिभावो वा॥ एदेसु हेदुभूदेसु कम्मइयवग्गणागदं जं तु। परिणमदे अट्टविहं णाणावरणादिभावहिं।। तं खलु जीवणिबद्धं कम्मइयवग्गणागदं जइया । तइया दु होदि हेदू जीवो परिणामभावाणं ।। निजतत्त्व का अज्ञान ही बस उदय है अज्ञान का। निजतत्त्व का अश्रद्धान ही बस उदय है मिथ्यात्व का॥ अविरमण का सद्भाव ही बस असंयम का उदय है। उपयोग की यह कलुषिता ही कषायों का उदय है। शुभ अशुभ चेष्टा में तथा निवृत्ति में या प्रवृत्ति में। जो चित्त का उत्साह है वह ही उदय है योग का || इनके निमित्त के योग से जड़ वर्गणाएँ कर्म की। परिणमित हों ज्ञान-आवरणादि वसुविध कर्म में| इस तरह वसुविध कर्म से आबद्ध जिय जब हो तभी। अज्ञानमय निजभाव का हो हेतु जिय जिनवर कही। जीवों के जो अतत्त्व की उपलब्धि है, तत्त्व संबंधी अज्ञान है, वह
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy