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________________ कर्ताकर्माधिकार जो पर को अपनेरूप करता है, अपने को भी पररूप करता है; वह अज्ञानी जीव कर्मों का कर्ता होता है। जो पर को अपनेरूप नहीं करता और अपने को भी पररूप नहीं करता, वह ज्ञानी जीव कर्मों का कर्ता नहीं होता, अकर्ता ही रहता है। (९४-९५) तिविहो एसुवओगो अप्पवियप्पं करेदि कोहोऽहं। कत्ता तस्सुवओगस्स होदि सो अत्तभावस्स। तिविहो एसुवओगो अप्पवियप्पं करेदि धम्मादी। कत्ता तस्सुवओगस्स होदि सो अत्तभावस्स। त्रिविध यह उपयोग जब 'मैं क्रोध हूँ' इम परिणमें। तब जीव उस उपयोगमय परिणाम का कर्ता बने । त्रिविध यह उपयोग जब 'मैं धर्म हूँ इम परिणमें। तब जीव उस उपयोगमय परिणाम का कर्ता बने । - यह तीन प्रकार का उपयोग जब क्रोधादि में 'मैं क्रोध हँ' - इसप्रकार का आत्म-विकल्प करता है, अपनेपन का विकल्प करता है, तब आत्मा उस उपयोगरूप अपने भाव का कर्ता होता है। इसीप्रकार यह तीनप्रकार का उपयोग जब धर्मास्तिकाय आदि में 'मैं . धर्मास्तिकाय हूँ - इसप्रकार का आत्मविकल्प करता है, अपनेपन का विकल्पकरता हैतब आत्मा उस उपयोगरूप अपने भाव का कर्ता होता है। एवं पराणि दव्वाणि अप्पयं कुणदि मंदबुद्धीओ। अप्पाणं अवि य परं करेदि अण्णाणभावेण ।। इसतरह यह मंदबुद्धि स्वयं के अज्ञान से। निज द्रव्य को पर करे अरु परद्रव्य को अपना करे॥ इसप्रकार अज्ञानी जीव अज्ञानभाव से परद्रव्यों को अपनेरूप और स्वयं को पररूप करता है।
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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