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________________ पूर्वरंग मैं कर्म हूँ नोकर्म हूँ या हैं हमारे ये सभी। यह मान्यता जबतक रहे अज्ञानि हैं तबतक सभी॥ जबतक यह आत्मा ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्मों, मोह-राग-द्वेषादि भावकों एवं शरीरादि नोकर्मों में अहंबुद्धि रखता है, ममत्वबुद्धि रखता है; यह मानता रहता है कि ये सभी मैं हूँ और मुझमें ये सभी कर्म-नोकर्म हैं' - तबतक अप्रतिबुद्ध रहता है, अज्ञानी रहता है। (२० से २२) अहमेदं एदमहं अहमेदस्स म्हि अस्थि मम एवं। अण्णं जं परदव्वं सच्चित्ताचित्तमिस्सं वा। आसि मम पुव्वमेदं एदस्स अहं पि आसि पुव्वं हि । होहिदि पुणो ममेदं एदस्स अहं पि होस्सामि ।। एयं तु असब्भूदं आदवियप्पं करेदि संमूढो । भूदत्थं जाणंतो ण करेदि दु तं असंमूढो।। सचित्त और अचित्त एवं मिश्र सब परद्रव्य ये। हैं मेरे ये मैं इनका हूँ ये मैं हूँ या मैं हूँ वे ही॥ हम थे सभी के या हमारे थे सभी गतकाल में। हम होंयेंगे उनके हमारे वे अनागत काल में| ऐसी असम्भव कल्पनाएँ मूढजन नित ही करें। भूतार्थ जाननहार जन ऐसे विकल्प नहीं करें। जो पुरुष अपने से भिन्न परद्रव्यों में - सचित्त स्त्री-पुत्रादिक में, अचित्त धन-धान्यादिक में, मिश्र ग्राम-नगरादिक में ऐसा विकल्प करता है, मानता है कि मैं ये हूँ, ये सब द्रव्य मैं हूँ; मैं इनका हूँ, ये मेरे हैं; ये मेरे पहले थे, इनका मैं पहले था; तथा ये सब भविष्य में मेरे होंगे, मैं भी भविष्य में इनका होऊँगा-वह व्यक्ति मूढ़ है, अज्ञानी है; किन्तु जो पुरुष वस्तु का वास्तविक स्वरूप जानता हुआ ऐसे झूठे विकल्प नहीं करता है, वह ज्ञानी है।
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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