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________________ पूर्वरंग न अप्रमत्त है न प्रमत्त है बस एक ज्ञायकभाव है। इस भाँति कहते शुद्ध पर जो ज्ञात वह तो वही है। जो एक ज्ञायकभाव है, वह अप्रमत्त भी नहीं है और प्रमत्त भी नहीं है; इसप्रकार उसे शुद्ध कहते हैं और जो ज्ञायकरूप से ज्ञात हुआ, वह तो वही है; अन्य कोई नहीं। ववहारेणुवदिस्सदि णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं । ण वि णाणं ण चरित्तं ण दसणं जाणगो सुद्धो। हग ज्ञान चारित जीव के हैं - यह कहा व्यवहार से। ना ज्ञान दर्शन चरण ज्ञायक शुद्ध है परमार्थ से॥ ज्ञानी (आत्मा) के ज्ञान, दर्शन और चारित्र-ये तीन भाव व्यवहार से कहे जाते हैं; निश्चय से ज्ञान भी नहीं है, दर्शन भी नहीं है और चारित्र भी नहीं है; ज्ञानी (आत्मा) तो एक शुद्ध ज्ञायक ही है। जहण वि सक्कमणज्जो अणज्जभासंविणादुगाहेहूँ। तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं॥ अनार्य भाषा के बिना समझा सके न अनार्य को। बस त्योंहि समझा सके ना व्यवहार बिन परमार्थ को॥ जिसप्रकार अनार्य (म्लेच्छ) भाषा के बिना अनार्य (म्लेच्छ) जन को कुछ भी समझाना संभव नहीं है; उसीप्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ (निश्चय) का कथन अशक्य है। (९-१०) जो हि सुदेणहिगच्छदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं । तं सुदकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा।।
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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