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________________ कि रत्नप्रभ सूरी के पूर्व के, श्री पार्श्वनाथ भगवान से पंचम पाटवी श्री स्वयंप्रभ सूर वीर संवत ५२ तक थे। इन के पश्चात वीर संवत ५२-८४ तक श्री रत्नप्रभ सूरि पट्टाधीश रहे । एक समय श्रीमाल नगर में यज्ञ हो रहा था कि श्री स्वयंप्रभ सूरि वहां पहुंचे और वहां के लोगों को उपदेश देकर अनेक क्षत्रियों को जैन बनाये और महाजन संघ की स्थापना की । इसी समय वहां के प्राग्वाट क्षत्रिय भी जैन बने और वणिक वृत्ति से रहने लगे। परंतु हिंसा के अतिरिक्त इन्होंने क्षत्रियोचित कोई भी कर्म का त्याग नहीं किया था। इस संबंध का विवरण अन्यत्र किया है। जब वि. सं० ८०२ में वनराजनें अणहिलपुरपट्टण की नीव डाली । पाटण के राज्य दरबार में श्रीमाली तथा पौरवालों का बहुत मान सन्मान था । और अच्छे २ स्थानों पर ये लोग विराजमान थे। श्रीमाली और पोरवाड गुजरात में साथ साथ आये श्रीमाल में साथ रहे । पाटण में साथ गए और साथ साथ राज कार्य करते रहे। [ देखो विमल प्रबंध और प्रबंध चिंतामणि ]. पोरवाड़ भिन्नमाल से निकलकर सिरोही आदि आस पास के प्रदेशों में जा बसने का एक प्रमाण नीचे दिया __जाता है।
SR No.032004
Book TitlePorwar Mahajano Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakur Lakshmansinh Choudhary
PublisherThakur Lakshmansinh Choudhary
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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