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________________ गुरु-शिष्य १२१ किया है, वह आपको बताऊँ? घर पर ऊब गया हो न, तो वह पंद्रह दिन वहाँ पर आराम से खाता-पीता और रहता है। वही सब धंधा किया है। इसलिए जिसे श्रम उतारना हो और खाना-पीना और सोए रहना हो, वह आश्रम रखे। पत्नी परेशान नहीं करती, कोई परेशान नहीं करता है। घर पर पत्नी-बच्चों के झगड़े होते हैं। वहाँ आश्रम में कोई झगड़नेवाला ही नहीं न, कहनेवाला ही नहीं न! वहाँ तो एकांत मिलता है न, इसलिए सचमुच के खर्राटे बुलवाते हैं। खटमल नहीं, कुछ भी नहीं। ठंडी हवा, संसार से जो थकान हुई हो, वह वहाँ पर उतरते हैं। अब ऐसे खा-पीकर पड़े रहते हों तो अच्छा था, परंतु ये तो दुरुपयोग करते हैं और उससे उनकी खुद की अधोगति करते हैं। उसमें औरों को नुकसान नहीं पहुँचते, परंतु खुद का ही नुकसान करते हैं। उसमें एक-दो अच्छे लोग भी होंगे! बाक़ी, आश्रम तो पोल (इनसिन्सियारिटी) करने का साधन है! प्रश्नकर्ता : आप जो मार्ग दिखाते हैं, उसमें आश्रम-मंदिर उन सबकी ज़रूरत है क्या? दादाश्री : यहाँ पर आश्रम-वाश्रम नहीं होता। यहाँ पर आश्रम तो होता होगा? मैं तो पहले से ही किसी भी आश्रम के विरुद्ध हँ! मैं तो पहले से ही क्या कहता हूँ? मुझे तो भाई आश्रम की ज़रूरत नहीं है। लोग यहाँ पर आश्रम बनाने आए हैं न, उन लोगों को मना कर दिया। मुझे आश्रम की ज़रूरत किसलिए है? आश्रम नहीं होता अपने यहाँ। इसलिए मैंने तो पहले से ही कहा है कि ज्ञानीपुरुष किसे कहते हैं कि जो आश्रम का श्रम नहीं करते। मैं तो पेड़ के नीचे बैठकर सत्संग करूँ ऐसा आदमी हूँ। यहाँ जगह की सहूलियत नहीं हो तो किसी पेड़ के नीचे बैठकर भी आराम से सत्संग करेंगे। हमें कोई हर्ज नहीं है। हम तो उदयाधीन हैं। महावीर भगवान भी पेड़ के नीचे बैठकर ही सत्संग करते थे, वे कोई आश्रम नहीं ढूँढते थे। हमें कुटिया भी नहीं चाहिए और कुछ भी नहीं चाहिए। हमें कुछ भी ज़रूरत नहीं है न! किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है। ज्ञानी आश्रम का श्रम नहीं करते। प्रश्नकर्ता : अप्रतिबद्ध विहारी शब्द उपयोग हुआ है उनके लिए।
SR No.030116
Book TitleGuru Shishya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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