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________________ गुरु-शिष्य or करे तो ही हमारी बात को स्वीकार करना। नहीं तो हमें स्वीकार करवाना है, वैसा कुछ नहीं है। हमारी वाणी से उसे श्रद्धा ज़रूर बैठती है। क्योंकि सत्य वस्तु जानने को मिलती है, इसलिए श्रद्धा बैठती है, वह फिर जाती नहीं। यह तो सत्य सुनने को मिला नहीं, इसलिए श्रद्धा बैठती नहीं है। सत्य सुनने को मिले तो श्रद्धा बैठे बगैर रहेगी ही नहीं। हम मना करें तो भी श्रद्धा बैठ ही जाती है। क्योंकि सच्ची बात तो मनुष्य छोड़ने को तैयार नहीं है, गालियाँ दो फिर भी। आप 'श्रद्धा नहीं रखनी है' ऐसा निश्चित करो न तो भी फिर से श्रद्धा यहाँ पर ही आ जाएगी। आप कहो कि 'अपना था वह क्या बुरा था?' परंतु फिर भी श्रद्धा हम पर वापिस आएगी ही और इसलिए ही उसके कितने ही काल की श्रद्धा, अनंत जन्मों की श्रद्धा एकदम से तोड़ देने को तैयार हो जाता है। किसलिए? उसे ऐसी श्रद्धा ही बैठ जाती है कि यह अभी तक सुना हुआ-जाना हुआ सबकुछ गलत निकला। अभी तक सुना हुआ गलत ठहरा, तब हमें ऐसा नहीं लगता कि यह तो अभी तक की मेहनत सब बेकार जा रही है? प्रश्नकर्ताः हाँ। दादाश्री : क्योंकि सच्ची बात पर श्रद्धा बैठती है। बैठे बगैर छुटकारा ही नहीं न! अंतरपट, रोकें श्रद्धा को फिर भी कुछ लोगों को श्रद्धा नहीं आती, उसका क्या कारण है? क्योंकि खुद ने ऊपर से परदे डाले हुए हैं। सिर्फ ये लोभी सेठों को और इन अहंकारी जानकारों को श्रद्धा नहीं आती। बाक़ी, इन मज़दूरों को तो तुरंत श्रद्धा आ ही जाती है। क्योंकि मज़दूरों में जानने की ऐसी अकड़ नहीं होती और बैंक का लोभ नहीं होता। ये दो नहीं हों, उसे पहचान में आ ही जाते हैं। इन दो रोगों के कारण तो रुका हुआ है लोगों का। 'मैं जानता हूँ' उसके अंतराय डाले हैं। नहीं तो ज्ञानीपुरुष पर तो आसानी से श्रद्धा बैठ जाए। यह तो खुद ने अंतरपट
SR No.030116
Book TitleGuru Shishya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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