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________________ गुरु-शिष्य क्या? मैं जब पच्चीस वर्ष का था तब एक बापजी के पास गया था । वे मुझे कहने लगे, 'वह तो भाई, श्रद्धा रखो तो आपको यह सब समझ में आएगा, आप मुझ पर श्रद्धा रखना!' 'कितने समय तक?' तब कहा, 'छह महीने ।' मैंने कहा, 'साहब अभी ही नहीं आ रही है न! ऐसा कोई गोंद लगाइए कि जिससे मेरी टिकट चिपक जाए, यह तो मैं चिपकाता हूँ, श्रद्धा चिपकाता हूँ और उखड़ जाती है, श्रद्धा चिपकाता हूँ और उखड़ जाती है । आप ऐसा कुछ बोलिए कि मुझे श्रद्धा आए ।' आपको क्या लगता है? श्रद्धा आनी चाहिए या रखनी चाहिए? प्रश्नकर्ता : आनी चाहिए । ९३ दादाश्री : हाँ, आनी चाहिए। 'कुछ बोलिए आप' ऐसा मैंने कहा। तब वे कहने लगे, ‘ऐसा तो होता होगा ? श्रद्धा रखनी पड़ेगी। ये सभी लोग श्रद्धा रखते हैं न?' मैंने कहा, 'मुझे ऐसा रास नहीं आएगा । ऐसे ही थूक लगाकर चिपकाई हुई श्रद्धा कितने दिन रहेगी? उसके लिए तो गोंद चाहिए, एकदम से चिपक जाएगी। ताकि फिर से उखड़े ही नहीं ना ! कागज़ फट जाए, परंतु वह नहीं उखड़े। ऐसा जो कहे कि, 'आपका गौंद कम है।' तो हमें कहना चाहिए कि, 'नहीं, गोंद आपको लगाना है, टिकट मेरी है।' यह तो आप गोंद चुपड़ते नहीं हैं, और मैं एन्वेलप (लिफ़ाफा) पर टिकट लगाता हूँ न, तो स्टेम्प (मुहर) लगाने से पहले तो टिकट नीचे गिर जाती है और फिर वहाँ जुर्माना भरना पड़ता है। आप टिकट के पीछे कुछ लगाओ। गोंद खत्म हो गया हो तो लेई लगाओ, तो चिपकेगी।' यानी श्रद्धा तो वह कि चिपकाने से चिपक जाए, वापिस उखड़े ही नहीं। ऊपर मुहर मारे तो मुहर थक जाए, लेकिन टिकट नहीं उखड़े। वहाँ श्रद्धा आ ही जाती है प्रश्नकर्ता : यह श्रद्धा किस आधार पर आती है ? दादाश्री : गुरु के चारित्र के आधार पर आती है । चारित्रबल होता है ! जहाँ वाणी, वर्तन और विनय मनोहर हों, वहाँ श्रद्धा बैठानी ही नहीं होती, श्रद्धा बैठ ही जानी चाहिए। मैं तो लोगों से कहता हूँ न, यहाँ श्रद्धा रखना ही मत,
SR No.030116
Book TitleGuru Shishya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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