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________________ समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (पू) 'मैं शुद्धात्मा हूँ' वह निरंतर लक्ष्य में रहे, तो वह महानतम् ब्रह्मचर्य है। उसके जैसा ब्रह्मचर्य और कुछ भी नहीं है। फिर भी अगर अंदर आचार्यपद प्राप्त करने के भाव हों, तब तो वहाँ बाहर का ब्रह्मचर्य चाहिए, वहाँ लेडी नहीं चलेगी। ३०६ ज्ञानीपुरुष की आज्ञा से चारित्र लेने में हर्ज नहीं, लेकिन इसके साथ ही चारित्र लेने के बाद इस चीज़ पर इतना अधिक सोच लेना चाहिए कि उस सोच के अंत में खुद का ही मन ऐसा हो जाए कि विषय तो बहुत ही बुरी चीज़ है। यह तो महा - महा मोह के कारण उत्पन्न हुई चीज़ है। सिर्फ अब्रह्मचर्य छोड़ दे तो पूरा जगत् अस्त हो जाता है, तेज़ी से! सिर्फ ब्रह्मचर्य पालन करने से तो पूरा जगत् ही खत्म हो जाता है न! वर्ना हज़ारों चीजें छोड़ने पर भी उद्धार नहीं होगा । चारित्र का सुख कैसा बरते ज्ञानीपुरुष से चारित्र ग्रहण करे, सिर्फ ग्रहण ही किया है, अभी तक पालन तो हुआ ही नहीं है, तभी से बहुत आनंद होने लगता है। तुझे आनंद हुआ क्या ? प्रश्नकर्ता : हुआ है न, दादा ! उसी क्षण से अंदर पूरा उघाड़ हो गया। दादाश्री : लेते ही खुलासा हो गया न ? लेते समय उसका मन क्लियर (साफ) होना चाहिए। उसका मन उस समय क्लियर था, मैंने जाँच लिया था । इसे चारित्र ग्रहण करना, कहा जाता है, व्यवहार चारित्र ! और वह 'देखना ' 'जानना' रखे, वह निश्चय चारित्र ! चारित्र के सुख को जगत् समझा ही नहीं है। चारित्र का सुख कुछ अलग ही तरह का है। हम इस स्थूल चारित्र की बात कर रहे हैं । जिसमें यह चारित्र उत्पन्न होता है, वह बहुत पुण्यशाली कहलाता है। ये सब लड़के
SR No.030109
Book TitleSamaz se Prapta Bramhacharya Purvardh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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