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________________ न हो असार, पुद्गलसार (खं-2-१३) २८७ दादाश्री : हाँ, निष्पत्ति ही नहीं है। प्रश्नकर्ता : तो शरीर को एकदम सुखा देना चाहिए और ऐसा मानना कि शरीर अच्छा होगा तो नुकसान होगा? इसमें ऐसा मान लेने की ज़रूरत नहीं है? दादाश्री : ऐसा कुछ इतना ज़्यादा मान लेने की ज़रूरत नहीं है और ऐसे घबराकर अभी आहार ज़्यादा नहीं लोगे तो फिर वह शरीर को नुकसान पहुँचाएगा। मतलब इसका किसी को उल्टा अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि दादा ने आहार की छूट दी है। प्रश्नकर्ता : मतलब नॉर्मेलिटी रखकर लेना चाहिए, ऐसे? दादाश्री : नॉर्मेलिटी मतलब घी-तेल, ऐसी कुछ चीजें तो कम कर ही दो। क्योंकि इन सबका शरीर पर असर होता है। यह समझ में आया न? टाइट होना, वह शरीर का स्वभाव ही है। इसमें उल्टा मान लेते हैं कि दोष मन का ही है, मन है इसलिए ऐसा हो रहा है। ऐसा मान लेने की गलती हो जाती है। लेकिन ऐसा खुलासा होने के बाद यह मान लेने की गलती नहीं करेगा। इस शरीर पर असर हुआ, ऐसा कुछ होने से 'भूख' लगी, ऐसा कैसे कह सकते हैं हम? मैं क्या कहना चाहता हूँ, वह समझ में आ रहा है? छोटे बच्चे, वगैरह को देखा है? उसकी स्टडी नहीं की है? ये सुना न? अब स्टडी करना ताकि यह गलत मान्यता खत्म हो जाए। प्रश्नकर्ता : मन से विषय भोगते हैं और शरीर से भोगते हैं, तो इन दोनों में कर्म किस में ज़्यादा बंधेगा? गाँठ किस में पड़ेगी? दादाश्री : मन से भोगने में ज़्यादा होता है। प्रश्नकर्ता : जब स्थूल में भोगने की बारी आती है, तब मन से तो पहले भोग ही लिया होता है न?
SR No.030109
Book TitleSamaz se Prapta Bramhacharya Purvardh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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