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________________ १६८ समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (पू) तो फिर उस रूप हो जाते हो। इसलिए सावधान रहना। मन तुम्हारे अभिप्राय को खा नहीं जाना चाहिए। अभिप्राय में रहकर वह जोजो काम करता है, वे हमें एक्सेप्ट हैं। तुम्हारे सिद्धांत को तोड़नेवाला होना ही नहीं चाहिए। क्योंकि 'तुम' स्वतंत्र हो गए हो, ज्ञान लेकर। पहले तो मन के ही अधीन थे 'तुम'। 'मन का चलता तन चले!' ही था न! प्रश्नकर्ता : अर्थात् ब्रह्मचर्य का सिद्धांत यह बहुत बड़ी और अनिवार्य चीज़ है। दादाश्री : इतनी ही चीज़ है न! सबसे बड़ी चीज़ यही है न! यही चीज़ पुरुषार्थ करने योग्य है। ___ चलो, सिद्धांत के अनुसार अभी तो तुम्हारा मन तुम्हारी ऐसे हेल्प करता है कि 'शादी करने जैसा नहीं है, शादी में बहुत दु:ख है।' सबसे पहले यह सिद्धांत बतानेवाला तुम्हारा मन था। यह सिद्धांत तुम ने ज्ञान से तय नहीं किया था, यह तुम्हारे मन से तय किया है। 'मन' ने तुम्हें सिद्धांत बताया कि 'ऐसे करो'। प्रश्नकर्ता : ब्रह्मचर्य पालन करने का सिद्धांत मन बताता है, उसी प्रकार यह विषय से संबंधित बातें भी मन ही बताता दादाश्री : उसका टाइम आएगा, तब छ: छः महीने, बारहबारह महीने तक वह बताता ही रहेगा। प्रश्नकर्ता : वह भी मन ही? दादाश्री : हाँ। सभी साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स इकट्ठे हो जाते हैं, तब। मैं इन सब से कहता हूँ कि 'मन के कहे अनुसार क्यों चलते हो? मन मार डालेगा।' तुम ने जो ब्रह्मचर्य का नियम लिया, वह भी मन के कहे
SR No.030109
Book TitleSamaz se Prapta Bramhacharya Purvardh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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