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________________ नहीं चलना चाहिए, मन के कहे अनुसार (खं-2-५) १५५ करके कहते है कि इसमें 'मन का चलता' छोड़ दो चुपचाप, अपने स्वतंत्र निश्चय से जीओ। मन की ज़रूरत हो तो लेना और ज़रूरत नहीं हो तो छोड़ दो। एक ओर रख दो उसे। लेकिन यह मन तो पंद्रह-पंद्रह दिनों तक घुमाकर फिर शादी करवा देता है। बड़ेबड़े संत भी घबरा चुके हैं, तो तुम लोगों की क्या बिसात? ध्येय का ही निश्चय ब्रह्मचारी बनने का यह निश्चय तो तेरा है! लेकिन यह तो तू मन के कहे अनुसार तो सबकुछ कर रहा है तो फिर यह सब तेरा है ही कहाँ? वह तो तेरे 'मन' ने कहा था, उस हिसाब से शादी करने में मज़ा नहीं है। तो ऐसा सब तेरे 'मन' ने तुझे कहा था और तूने एक्सेप्ट कर लिया? प्रश्नकर्ता : अब निश्चय हो गया है न लेकिन? दादाश्री : अब निश्चय तेरा है। यदि उसे तू तय करे कि अब यह है मेरा निश्चय। बाद में मन से कह देना कि, 'अब अगर तू उल्टा करेगा, तो तेरी बात तू जाने!' अब तो इसे अपने सिद्धांत के रूप में स्वीकार करते हैं, तो अपना ही कहलाएगा, वह निश्चय। प्रश्नकर्ता : सिद्धांत के रूप में स्वीकार करने के बाद 'अपना', वर्ना 'मन' का? दादाश्री : तो और किसका? उसी का है। 'अपना' कहाँ है यहाँ इस जायदाद में? जो अपनी जायदाद थी, उसे दबोच लिया है, और उसमें भी अपने किराए के मकान में रहता है। उसमें भी वह चोरी करता है न ऊपर से? किसी के छत पर से खपरैल का टुकड़ा गिरे और लग जाए, फिर भी कुछ नहीं बोलते हो। क्योंकि वहाँ मन कहेगा कि 'किसे कहूँ अब?' वह तो जैसा उसका मन सिखाता है, उसी
SR No.030109
Book TitleSamaz se Prapta Bramhacharya Purvardh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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