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________________ जितने दोष, उतने ही चाहिए प्रतिक्रमण 'अनंत दोष का भाजन है। तो उतने ही प्रतिक्रमण करने पड़ेंगे। जितने दोष भरकर लाए हो, वे आपको दिखेंगे। ज्ञानी पुरुष के ज्ञान देने के बाद दोष दिखने लगते हैं, नहीं तो खुद के दोष नहीं दिखते, उसी का नाम अज्ञानता। खुद का एक भी दोष नहीं दिखता है और किसीके देखने हों तो बहुत सारे देख ले, उसका नाम मिथ्यात्व।' दृष्टि निजदोषों के प्रति... यह ज्ञान लेने के बाद अंदर खराब विचार आएँ, उन्हें देखना, अच्छे विचार आएँ उन्हें भी देखना। अच्छे पर राग नहीं और खराब पर द्वेष नहीं। अच्छा-बुरा देखने की हमें ज़रूरत नहीं है। क्योंकि मूलतः सत्ता ही अपने काबू में नहीं है। अतः ज्ञानी क्या देखते हैं? सारे जगत् को निर्दोष देखते हैं। क्योंकि यह सब 'डिस्चार्ज' में है, उसमें उस बेचारे का क्या दोष? आपको कोई गाली दे, वह 'डिस्चार्ज'। 'बॉस' आपको उलझन में डाले, तो वह भी 'डिस्चार्ज' ही है। बॉस तो निमित्त है। जगत् में किसी का दोष नहीं है। जो दोष दिखते हैं, वह खुद की ही भूल है और वही 'ब्लंडर्स' हैं और उसीसे यह जगत् कायम है। दोष देखने से, उल्टा देखने से ही बैर बँधता है। ३१
SR No.030102
Book TitleAatmsakshatkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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