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________________ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) अगर किताब को दर्पण के सामने रखें तो किताब अपना स्वभाव नहीं बदलेगी, तब क्या दर्पण अपना स्वभाव बदलता है? नहीं। दर्पण तो खुद के स्वभाव में ही है लेकिन उसके सामने जाओ तो 'वह' खुद का स्वभाव भी दिखाता है और 'विशेष भाव' भी दिखाता है। यह बहुत सूक्ष्म बात है। साइन्टिस्टों को जल्दी समझ में आएगी। यह विशेष भाव क्या है? प्रकृति अपने आप किस तरह खड़ी हो जाती है? यह सब मेंने देखा है। मैं यह सभी कुछ देखकर कह रहा हूँ! यह होता किस तरह से है? दोनों का सामीप्य भाव, दोनों का टच होना। इन दोनों के टच होने से आत्मा की यह दशा हो गई! वह मान्यता छूट जानी चाहिए। पुद्गल और चेतन दोनों के मिलने से व्यतिरेक गुण उत्पन्न हो गए। उनसे जो भाव उत्पन्न होते हैं, उनकी वजह से प्रकृति उसी अनुसार बनती जाती है, भाव से। रहती है अलग लेकिन यहाँ पर 'यह' जैसा भाव करता है, वैसे ही पुतले की रचना होती जाती है। भाव से रचे जाने के बाद वह अपने स्वभाव में रहा करता है। फिर वह जवान होता है, बूढ़ा होता है। पहले सभी में इच्छानुसार होता है लेकिन फिर वह अपने स्वभाव में चला जाता है। बूढ़ा होना अच्छा नहीं लगता फिर। जैसे अपने भाव हैं, उसी भाव से प्रकृति बन जाती है। जिसे संसारी बनने की इच्छा हो, उसे स्त्री वगैरह सबकुछ मिल जाता है। वे सभी संयोग मिल जाते हैं। 'खुद' जैसा भाव करता है, विशेष भाव, वैसा ही यह बन जाता है। पुद्गल में गुण ही ऐसे प्रकृति के गुण, वे 'पर' गुण हैं, आत्मा के नहीं हैं। जगत् 'पर' के गुणों को 'स्व' गुण कहता है। प्रकृति का एक भी गुण 'शुद्धचेतन' में नहीं है और 'शुद्धचेतन' का एक भी गुण प्रकृति में नहीं है, गुणों से दोनों सर्वथा भिन्न हैं। दोनों भिन्न ही हैं। सामीप्य भाव की वजह से एकता हो गई है इसके सिवा कुछ है ही नहीं। पहले से अलग ही हैं। पूरी ‘रोंग बिलीफ' ही बैठ चुकी है। 'ज्ञानीपुरुष' राइट बिलीफ दें, तब हल आ जाता है! सिर्फ दृष्टि फेर ही है। मात्र दृष्टि की भूल है।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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