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________________ है? बुद्धि का तो, यों जो आँखों से दिखाई देता है, इन्द्रियों से दिखाई देता है वह सब है, जबकि आत्मा का ज्ञान-दर्शन तो अलग ही है। आत्मा द्रव्यों को देखता और जानता है, द्रव्यों के पर्यायों को देखता और जानता है, उसके गुणों को देखता और जानता है। बुद्धि मन के कुछ पर्यायों को जान सकती है व अहंकार के पर्यायों को जान सकती है जबकि आत्मा उससे भी आगे का देखता और जानता है। महात्माओं में द्रव्य का देखना और जाननापन नहीं होता। उन्हें तो राग-द्वेष नहीं हों तो काफी है। अक्रम ज्ञान प्राप्ति की निशानी। आत्मा तो सभी छः द्रव्यों को और उनके पर्यायों को देखता और जानता है! यह सब से अंतिम बात है। महात्माओं में जो देखता और जानता है, वह बुद्धि है लेकिन पहले बुद्धि के साथ अहंकार था इसलिए राग-द्वेष होते थे। अब अहंकार नहीं रहा इसलिए राग-द्वेष नहीं होते। यह भी बहुत बड़ी बात है। लेकिन यह रिलेटिव ज्ञान कहलाता है। वास्तविक देखना व जानना तो बुद्धि से परे है। अब, जब ऐसा जाने कि यह बुद्धि का जानपना पर-परिणाम है, तब वह स्व-परिणाम को समझेगा। सामायिक में देखने पर सबकुछ दिखाई देता है, लेकिन वापस उसे भी जो देखे, अर्थात् जो देखनेवाले को भी देखता है वह अंतिम देखनेवाला है। उसके ऊपर कोई नहीं है। अतः सामायिक में जो देखता है वह बुद्धि व अहंकार अर्थात् अज्ञाशक्ति है और उसे देखनेवाला आत्मा अर्थात् प्रज्ञाशक्ति है। देखने का कार्य सहज होना चाहिए। अब यह जो ज्ञाता-दृष्टा 'रहना पड़ता है,' यानी कि उसे भी जाननेवाला ऊपर कोई है। अब ऊपरी (बॉस, वरिष्ठ मालिक) को देखना नहीं पड़ता।' उसे 'सहज रूप से दिखता ही रहता है।' यदि 'देखना पड़ता है' तो वह बीचवाला उपयोग है और उसे भी जाननेवाला ठेठ अंतिम दशा में! जैसे दर्पण में हम सब दिखाई देते हैं न,
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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