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________________ या तो वर्तमान में बरते या फिर खुद के पुद्गल को देखे, ये दो चीजें रखनी है। इस पुद्गल की तरफ की मित्राचारी कब तक रखनी है? जो दगाखोर हों, उसके साथ धीरे-धीरे मित्राचारी कम कर देनी चाहिए। फाइल नं-१ क्या कर रही है, क्या खाती-पीती है, वह सब आप सिर्फ जानते हो लेकिन देखते नहीं हो। पुद्गल को निरंतर देखते रहना चाहिए। पहला फर्ज है देखने का और फिर जानने का। जिस प्रकार से फाइल नं-१ दर्पण को अलग दिखाई देती है वैसे ही 'हमें' भी वह अलग दिखाई देनी चाहिए। इसके लिए अरीसा (दर्पण) सामायिक की प्रेक्टिस करनी चाहिए। सब से अंतिम ज्ञाता-दृष्टा तो... आपको फाइल नं-१ ऐसे आते-जाते अलग दिखाई दे। 'ओहोहो आइएआइए' ऐसा करे। दादाश्री की आज्ञा है। सामनेवाले को शुद्ध देखोगे तो शुद्ध हो जाओगे, मुक्त हो जाओगे। फाइल नं-१ का पुद्गल क्या रहा है, मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार, ये सभी क्या कर रहे हैं, उसे हमें निरंतर देखते ही रहना है। भगवान महावीर निरंतर एक पुद्गल को ही देखते थे कि 'अंदर क्या-क्या परिवर्तन हो रहा है, क्या-क्या स्पंदन हो रहे हैं।' अरे, आँख की पलकें हिलती थीं तो उसे भी भगवान देखते रहते थे! लोग इन्द्रिय दृष्टि से देखते हैं और भगवान अतीन्द्रिय दृष्टि से देखते थे! महात्माओं से भगवान की तरह एक पुद्गल को देखना नहीं हो पाता न? इसलिए दादाश्री ने रियल-रिलेटिव, दो दृष्टियों से देखने को कहा है। पुणिया श्रावक की सामायिक होती है इस तरह से। जो हमें गाली दे, उसे भी शुद्धात्मा की तरह देखो। भगवान महावीर तो, जब खटमल काटें तो उन्हें भी देखते थे। महावीर करवट बदलते तो उन्हें भी देखते थे। शरीर का स्वभाव है तो ऐसा
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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