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________________ किसी ने गाली दी और हिल गए और फिर ज्ञान हाज़िर होने पर जुदा हो जाता है। इस प्रकार फिर वापस और ज्यादा से ज्यादा रहने लगता है, उससे वह ज्ञातापद में आता है। जैसे-जैसे हिसाब चुकते जाते हैं, वैसे-वैसे ज्ञान बढ़ता जाता है। ज्ञान-दर्शन साथ में हो तब चारित्र में आता है। उससे पहले अदीठ तप होता है। समसरण मार्ग में न तो दुनिया का, न ही अपना अंत आता है। अंत तो आता है मार्ग का! देखनेवाला 'मुक्त हो जाता है। चलनेवाला बंधन में है।' चलनेवाले को देखता' रहे, तो वह मुक्ति है। दोनों अब जुदा हो गए। पहले एक ही थे। ज्ञाता-दृष्टा का मतलब क्या है? ज्ञान मिलने के बाद ज्ञाता-दृष्टापन मन या बुद्धि के आधार पर नहीं रहता, वह प्रज्ञाशक्ति के आधार पर है। अंदर फाइल नं-१ क्या कर रही है, मन क्या कर रहा है, बुद्धि-चित्त और अहंकार सभी क्या कर रहे हैं, उसे देखना और जानना, वह ज्ञातादृष्टापन है। मन की सभी अवस्थाओं को बुद्धि नहीं जान सकती। राग-द्वेष रहित ज्ञान को अतीन्द्रिय ज्ञान कहा जाता है। सम्यक दर्शन और सम्यक ज्ञान से जो देखा व जाना उसे ज्ञाता-दृष्टा कहा जाता है। अन्य सारा काल्पनिक, इन्द्रिय ज्ञान कहलाता है। चंदूभाई बनकर अंदर देखना, वह इन्द्रिय ज्ञान है और शुद्धात्मा बनकर चंदूभाई को देखना, वह आत्मा का ज्ञान है। आँख से देखना, कान से सुनना और नाक से सूंघना, वह सारा इन्द्रिय ज्ञान है। उसे बुद्धि जानती है। वह सब अज्ञान कहलाता है। बुद्धि अर्थात् अज्ञा। अज्ञा को भी जो जानती है, वह प्रज्ञा है। जो कि मूल आत्मा की शक्ति है, रिप्रेजेन्टेटिव है। करनेवाला अहंकार है और जाननेवाली प्रज्ञा है। करनेवाला करता ही रहता है, उसे 'जानते' ही रहना है।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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