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________________ ४१८ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) दादाश्री : ठीक है। हम शुद्ध हो जाएँ तो उसमें हर्ज ही नहीं है न! शुद्ध हो गए उसके लिए कुछ रहा ही नहीं न! प्रश्नकर्ता : आपने हमें अकर्ता पद में रख दिया है, फिर हमें क्या? दादाश्री : हाँ, ठीक है। खुद अकर्ता पद रखता है ! प्रश्नकर्ता : खुद एकदम से ज्ञायक स्वभाव में रहता है तो फिर चंदूभाई से किसी जीव की हिंसा हो जाए तो उसे कोई लेना-देना रहता ही नहीं है न? दादाश्री : ज्ञायक को कोई लेना-देना नहीं रहता। प्रश्नकर्ता : अर्थात् आप ऐसा ही कहते हैं कि लेना-देना चंदूभाई को है। अतः अगर आपको प्रतिक्रमण करवाना हो तो चंदूभाई से करवाओ। दादाश्री : जिससे हो गया है उसे लोग कहते हैं कि 'ये कैसे लोग हैं? इन्हें देखो न, इसे मार दिया आपने।' जिसने किया है, उसे कहते हैं लोग। ज्ञायक को कोई नहीं कहता। ज्ञायक को कर्म नहीं बंधता। ज्ञायक को कोई लेना-देना है ही नहीं। अर्थात् जिसने किया है उसी को हमें कहना है कि 'प्रतिक्रमण करना तू। अतिक्रमण क्यों किया? प्रतिक्रमण करो।' प्रश्नकर्ता : क्या उस समय ज्ञायक को ऐसा भेद-अभेद रहता है कि यह हिंसा की या नहीं की? दादाश्री : नहीं, हिंसा शब्द है ही नहीं। हिंसा नहीं है और अहिंसा भी नहीं है। ज्ञायक तो इतना ही जानता है कि इस दुनिया में कोई जीव मरता भी नहीं है और कोई मार भी नहीं सकता। मरता भी नहीं है और जीता भी नहीं है। प्रश्नकर्ता : तो फिर प्रतिक्रमण क्यों करना है? दादाश्री : प्रतिक्रमण तो, जिसने अतिक्रमण किया है उसके लिए है। वह व्यवहार से है, तो व्यवहार में लोग कहते हैं न कि 'भाई, बेअक्ल हो या क्या?' और खुद को कहाँ प्रतिक्रमण करना है। जो अतिक्रमण करता
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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