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________________ ४०० आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) दादाश्री : दोनों में समानता रखना, वही ज्ञान है। प्रश्नकर्ता : दोनों डिस्चार्ज ही हैं। दादाश्री : दोनों डिस्चार्ज ही हैं। हम जो कहते हैं उस एक-एक शब्द को अगर समझ लो न तो काम हो जाए। प्रश्नकर्ता : अब लक्ष (जागृति) उस तरफ का ही है कि दादा के विज्ञान को समझना है। दादाश्री : हाँ। गलन को 'देखते' रहो प्रश्नकर्ता : ज्ञान लेने के बाद का जो गलन है उसे देखते ही रहना है या उसकी गति बढ़ाने के लिए कुछ करना चाहिए? दादाश्री : गति बढ़ानेवाला कौन? कर्ता चला गया फिर गति बढ़ानेवाला कौन? प्रश्नकर्ता : उसे अपने आप ही होने देना है। दादाश्री : देखते ही रहना है। जो होता है उसे देखते ही रहना है। हमने जो पूरण किया था, वह अब अपना फल देकर गलन होगा। कड़वा होगा तो कड़वा और मीठा होगा तो मीठा, फल देकर दोनों का गलन हो जाएगा। उन्हें हमें देखते रहना है। गति बढ़ाना वगैरह, ऐसी कोई दखल करनी ही नहीं है। अब इस सीधे साइन्स में यदि थोड़ी सी भी भूल खा जाएँगे तो मार पड़ जाएगी। कुछ बदलने लगे तो मेरे पास आ जाना, मैं फिर से ऑपरेशन कर दूंगा। नासमझी से बदलाव होने की संभावना तो है न! प्रश्नकर्ता : हम छोड़ दें वह भूल? दादाश्री : ज्ञातापन तो छोड़ा ही नहीं जा सकता। ज्ञातापन ही अपना स्वभाव है और ज्ञेय तो निरंतर रहते ही हैं। वह जो मन है न, वह ठेठ आयु
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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