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________________ ३५८ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) दादाश्री : इसमें तो देखनापन (दर्शन) है कि यह पराया है और यह मेरा। प्रश्नकर्ता : वह तो देखनापन हुआ लेकिन इसमें जानपने में क्या है? दादाश्री : नहीं, देखनापन तो बहुत सामान्य भाव से होता है। सभी ज्ञेयों को एक भाव से देखता है। सभी दृश्यों को एक भाव से देखता है। प्रश्नकर्ता : लेकिन इसमें आपने जो वह बात कही है न कि 'यह नीम है, यह पीपल है, तो इस तरह से खुद की आंतरिक स्थिति में वह किन चीज़ों को देखता है? वह क्या देखता है? तो किस चीज़ को देखने में पड़ जाता है? दादाश्री : उसी में, वह देखने में ही पड़ता है। और किसी में नहीं पड़ता। जिसे देखने में पड़ता है वही उसका उपयोग है। प्रश्नकर्ता : नहीं, तो इसका उदाहरण दीजिए न? हम लोग क्या देखने में पड़ जाते हैं? दादाश्री : इस एक को विस्तारपूर्वक जानने में पड़ जाओ तो आप दृष्टा में नहीं रहे। अर्थात् मूल आत्मा में नहीं रहे आप क्योंकि यह नीम है इतना ही देखते रहो तो फिर दृश्य बंद हो जाता है। दृश्य पूरा ही सामान्य भाव से होता है। अगर एक नीम को जानने का प्रयत्न करे कि 'यह नीम है, कैसा लग रहा है?' तो कहता है, 'कड़वा लग रहा है।' चखता रहता है, उस घड़ी पूरा दृश्य बंद हो जाता है। ___ समय लगता है डिसाइड होने में जगत् क्या है, क्या नहीं है, यह सब हमारी समझ में आ गया है लेकिन जानने में नहीं आया है। जैसे अगर सागवान को काटें तो उससे अच्छा फर्नीचर बनता है, ऐसा सब नहीं जाना था। पेड़ है ऐसा जाना था। काटने से लकड़ी निकलेगी ऐसा पता चला लेकिन यह लकड़ी काम की है या नहीं, ऐसा कुछ पता नहीं चलता। यह सागवान है या यह नीम है, ऐसा पता नहीं चलता इसलिए विवरण नहीं आता।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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