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________________ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) प्रश्नकर्ता : भड़काहट हुई, तो यह जो 'भय' शब्द का उपयोग करते दादाश्री : वह तो उनकी भाषा में....। प्रश्नकर्ता : उनकी भाषा में भी इसका अर्थ भड़काहट ही समझना है। दादाश्री : भड़काहट ही समझना है। इसे भय कह दिया इसीलिए तो ये उल्टा चल रहा है सब। ऐसे कितने ही शब्दों के चेन्ज कर देना चाहिए। मूल शब्द लोगों को मिले, ऐसा नहीं है। ज्ञानीपुरुष के पास सभी मूल शब्द मिल जाते हैं कि यह क्या हकीकत है और यह क्या हकीकत है। और जब तक भय लग रहा हो, तब तक तो आत्मा प्राप्त ही नहीं किया और भय को अगर नोकर्म में डालो तो उसका अर्थ ही नहीं है न और मीनिंगलेस है। अतः ऐसा है नोकर्म । सिर्फ भड़काहट। अतः हममें बहुत स्थिरता है। कुछ तरह की आवाजें हो जाएँ, तब तक हमें कुछ भी नहीं होता। जो पिछले किसी भी जन्म में सुनी ही नहीं हो और अगर नई ही तरह से उल्लू बोले एकदम से, तो हिल जाते हैं वापस, लेकिन अंदर स्थिरता नहीं छोड़ते। ये महात्मा बिल्कुल भी अंदर की स्थिरता नहीं छोड़ते हैं। पूरा शरीर हिल उठता है, ज़रा ऐसे-ऐसे हो जाता है। प्रारब्ध ही नोकर्म हैं अब वास्तव में नोकर्म का यों दूसरी प्रकार से अर्थ करने जाएँ तो क्या है? तो वह है प्रारब्ध कर्म। वह संचित नहीं है। प्रश्नकर्ता : संचित का थोड़ा भाग प्रारब्ध के रूप में आया है? दादाश्री : वे प्रारब्ध फल देने के लिए तैयार हो चुके हैं। जो संचित हैं वे आठ कर्म हैं न, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अतंराय
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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