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________________ २९२ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) अच्छा लगता है? लेकिन क्या हो सकता है? लेकिन देखो हाथी बनकर रहता है न अंदर आराम से। फिर लँड ही हिलाता रहता है न! और इस गधेभाई को देखो न, पोटलियाँ लेकर घूमता है न! यह समझ में आया आपको, ‘ग्रहण करे जड़धूप?' तो 'हमने' ही जड़धूप उत्पन्न की है। भगवान ऐसा कुछ भी बनाने नहीं आए हैं ! कोई कुछ भी करने नहीं आया है! आपने खराब भाव किए कि परमाणुओं ने घेर लिया आपको और वे परमाणु आपको ही अंध बना देते हैं। और अगर अच्छे भाव करोगे तो वे परमाणु खत्म हो जाएंगे। उन्हें सँभाल कर रखो ऐसा भी नहीं है। लेकिन अच्छा करना भी आना चाहिए न? और अच्छा करने के बाद खराब नहीं करना हो तो ठीक है लेकिन फिर खराब भी कर देता है। यह हाथी क्या करता है? यों लँड लेकर पहले पानी से नहा आता है और फिर सूंड में लेकर खुद के ऊपर धूल भी उड़ाता है। फिर वापस नहाने जाता है। तो भाई अगर नहाना ही है तो धूल क्यों उड़ा रहा है? प्रकृति स्वभाव जाता नहीं है न! ज्ञान से अकर्ता, अज्ञान से कर्ता प्रश्नकर्ता : आत्मा तत्व से कर्म का कर्ता नहीं है, तो फिर वह भावकर्म किस तरह कर सकता है? । दादाश्री : तत्व से वह कर्म का कर्ता नहीं है लेकिन अज्ञान से तो कर्ता है न! जब तक वह यह नहीं जानता कि 'मैं कौन हूँ' तब तक 'वह' कर्ता ही है। मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा भान होने के बाद फिर कर्ता नहीं रहता। अनुपचरित व्यवहार से कर्ता प्रश्नकर्ता : श्रीमद् राजचंद्र का वाक्य है कि 'अनुपचारिक व्यवहार से आत्मा द्रव्यकर्म का कर्ता है, उपचार से घर-नगर आदि का कर्ता है।' यह समझाइए। दादाश्री : अपने लिए अब उपचरित और अनुपचरित कुछ रहा ही नहीं न! ये सारे शब्द तो क्रमिक मार्ग में सिखलाए जाते हैं। किस आधार
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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