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________________ २८० आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) यह मेरी भावना है,' ऐसा कहते हैं। वह भाव नहीं है, भाव तो चीज़ ही अलग है। भाव बहुत गहरी चीज़ है। भावकर्म तो, आप अंदर इच्छाएँ पूरी करने के लिए जो बोलते हो न, अंदर भावना करते हो न कि 'मुझे मकान बनाना है, मुझे शादी करनी है, बच्चों की शादी करवानी है,' ऐसे सब जो भाव करते हो न? यहाँ पर जो ऐसे भाव करते हो न, उससे अंदर जो सूक्ष्म भाव बंध जाते हैं, वे भावकर्म हैं। परिणाम में भावकर्म नहीं होते। ये सब परिणाम कहलाते हैं। भावकर्म कॉज़ज़ के रूप में होते हैं। ये सभी भावनाएँ इफेक्ट कहलाती हैं। वे परिणाम के रूप में होती हैं। यह जो भावकर्म है, वह अलग चीज़ है। भावकर्म को समझना बहुत मुश्किल चीज़ है। ये लोग तो ऐसा ही समझते हैं कि मुझे भाता है अतः यह मेरा भावकर्म है, ऐसा नहीं है। भावकर्म व्यवहार में नहीं आता। वह ऐसा नहीं है कि व्यवहार में दिखे। अस्त होती हुई इच्छाएँ तो ज्ञानी को भी रहती है भावकर्म तो आपके ध्यान में भी न आए। 'मुझे ऐसा भाव हो रहा है, ऐसा भाव हो रहा है, वैसा भाव हो रहा है,' इन सब का तो आपको पता चलता है जबकि भावकर्म का तो पता ही नहीं चलता। हम निरीच्छक कहलाते हैं कि जिन्हें किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं है अब। फिर भी अगर दोपहर का एक बज गया हो और फिर डेढ़ बज जाए तो हम यों करके देखते हैं अंदर कि क्यों आज कोई खाना नहीं दे रहा है? तो क्यों ऐसा कहते हैं?' वे खुद क्या कोई मेनेजर हैं कि ऐसा सब देख रहे हैं? तो कहते हैं, 'नहीं, इच्छा है खाने की।' निरीच्छक को किस चीज़ की इच्छा है? खाने की इच्छा है। ये सारी इच्छाएँ डिस्चार्ज इच्छाएँ हैं। ये भाव डिस्चार्ज हैं, जैसे सूर्यनारायण उगते हैं और अस्त होते हैं, तब वे अस्त होते समय भी वैसे ही दिखाई देते हैं। लेकिन यह इच्छा अभी पलभर में बंद हो जानेवाली है जबकि वे इच्छाएँ उगती हुई हैं। इच्छाएँ अंत
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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