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________________ २६६ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) इसलिए परिणाम फल देकर चले जाएँगे, खत्म हो जाएँगे। उसके बाद निरंतर वेदनीय कर्म भोगता रहता है। निरंतर नामकर्म भोगता रहता है, निरंतर गोत्रकर्म भोगता रहता है, निरंतर आयुष्य कर्म भोगता रहता है। प्रश्नकर्ता : आयुष्य, वेदनीय, नाम और गोत्र, आत्मज्ञान हो या नहीं हो तब भी ये सब भोगने ही पड़ते हैं? दादाश्री : ठीक है, बात सही है। वह तो जिसे ज्ञान हो गया हो उसे भी भोगना है और नहीं हुआ हो उसे भी भोगना है। लेकिन ज्ञानवाले को जो भोगना है, उसे खुद को स्पर्श न करें, इस तरह कर्म भोगने हैं और ज्ञान नहीं लिया है उसे स्पर्श करें, इस तरह भोगना है। भोगना तो दोनों को ही है। फिर जितना स्पर्श होगा उतना ही भोगवटा रहेगा और यदि स्पर्श नहीं करे, ज्ञाता-दष्टा रहे तो भोगवटा नहीं रहेगा। वहाँ पर जितनी जागति रहेगी उतना ही लाभ होगा। शुक्लध्यान से नष्ट होते हैं घातीकर्म प्रश्नकर्ता : अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख और अनंत शक्ति आत्मा के ये जो चार गुण हैं, उन्हें आवृत कर देते हैं इसलिए वे घातीकर्म कहलाते हैं। क्योंकि ये आत्मा के स्वभाव का घात कर रहे हैं, इसलिए वे बलवान हैं। दादाश्री : ऐसा है न कि शब्दों पर से हमें बहुत नहीं समझ लेना है। अगर दोनों में लड़ाई होगी तो यह जीतेगा। बलवान कहने का मतलब हम ऐसा नहीं कहना चाहते। ये सूर्यनारायण हैं न, अब बादल आएँ तो सूर्यनारायण को ढक देते हैं तो क्या इसमें बादल बलवान हैं? लेकिन अभी बल दिख रहा है न उनका, बलवान नहीं है। वह लड़े तो कोई भी फायदा नहीं होगा। आत्मा अनंत शक्ति का धनी है। एक ठोकर मारे तो सबकुछ खत्म कर दे, लेकिन वह करता नहीं है। हाँ, यदि विशेष शक्ति का उपयोग करे तो कुछ का कुछ कर दे। प्रश्नकर्ता : जो शुद्ध चिद्रूप (ज्ञान स्वरूप) के ध्यान में तत्पर हो जाए, एकाग्र हो जाए, वह सर्वोत्तम शुक्लध्यान है। ध्यान अग्नि को इतना
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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