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________________ २४४ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) दादाश्री : वह पॉज़िटिव में है इसलिए लोकपूज्य ही है। ऐसे पॉजिटिव हैं न सभी। यह सब अपने सेठ वगैरह सब पॉज़िटिववाले हैं अतः वे निंद्य नहीं हैं। व्यसन से निंद्य हो गए हैं या फिर संग खराब होता है। जो लोगों को डराते हैं, वे विकारी इंसान की तरह........ प्रश्नकर्ता : पहचाने जाते हैं। दादाश्री : हाँ, वे लोकपूज्य में नहीं आते। अतः मॉरल बाइन्डिंग होना चाहिए। अर्थात् वह है लोकपूज्य। अभी हमने लोकपूज्य का बड़ा अर्थ निकाला, वर्ना तो अभी कोई लोकपूज्य माना ही नहीं जाता न! है ही नहीं न कोई ऐसा इंसान! इसलिए आसान कर दिया। जो लोकनिंद्य नहीं माने जाते, वे ही लोकपूज्य हैं अभी। दर्शन से ही बंध गया तीर्थंकर गोत्र प्रश्नकर्ता : अभी कौन से कर्म ऐसे हैं कि जिनके लिए कह सकते हैं कि यह नामकर्म है या यह गोत्रकर्म है? दादाश्री : हम यहाँ पर दान वगैरह देते हैं, ऐसे सब सतकर्म करते हैं न? वह सारा नामकर्म में आता है। भाव से लोगों का कल्याण करना हो तो गोत्रकर्म कहलाता है। श्रेणिक राजा को महावीर भगवान के सिर्फ दर्शन करने से ही तीर्थंकर गोत्र बंध गया था और ऐसे भी जीव हैं जो उन्हीं भगवान महावीर के पास आकर अनंत अवतारी बने क्योंकि भगवान के दर्शन करते समय मशीन उल्टी घूमी तो उससे अनंत अवतार हो गए! वे श्रेणिक राजा, अगली चौबीसी के पद्मनाभ नामक पहले तीर्थंकर बनेंगे! भगवान के दर्शन मात्र से ही! अब उस घड़ी दर्शन तो बहुत सारे लोगों ने किए थे न! लेकिन नहीं, श्रेणिक राजा को पहले किसी गुरु महाराज ने जो दृष्टि दी थी न, वह दृष्टि और यह दर्शन, दोनों एक साथ हुए तो तुरंत ही तीर्थंकर गोत्र बंध गया! दादा
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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