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________________ [२.८] गोत्रकर्म २४१ अर्थात् लोकपूज्य और दूसरे लोकनिंद्य, यहाँ पर अहमदाबाद में क्या कोई लोकनिंद्य इंसान नहीं होगा? कोई निंदा करनी पड़े ऐसे लोग नहीं होंगे? प्रश्नकर्ता : होंगे तो सही। दादाश्री : कितने? पाँच-दस प्रतिशत? प्रश्नकर्ता : ज़्यादा होंगे। दादाश्री : बारह प्रतिशत? वर्ना लोग बेकार नहीं है निंदा करने के लिए लेकिन अगर वह शराब पीता हो, मांसाहार करता हो, जुआ खेलता हो, ऐसा सब करता हो, तो लोग निंदा करेंगे या नहीं करेंगे? इसे लोकनिंद्य पुरुष कहते हैं। गोत्र का अंहकार होते ही भावकर्म चार्ज उच्च गोत्र, नीच गोत्र वगैरह सब द्रव्यकर्म हैं। अत: यह सब उसे फ्री ऑफ कॉस्ट मिला है, द्रव्यकर्म के आधार पर। उच्च गोत्र के कारण वह वापस ऐसे अकड़ जाता है। उसे वापस इगोइज़म चढ जाता है और नीच गोत्रवाले में नीच गोत्र की इन्फिरियारिटी घुस जाती है। नीच गोत्रवाले को इन्फिरियारिटी में रहने की ज़रूरत नहीं है, इसे इगोइज़म करने की ज़रूरत नहीं है लेकिन फिर ये दोनों ही भावकर्म कहलाते हैं। __ अभी तक कहते थे न, 'हम कैसे कुलवान, हम लोकपूज्य!' तब फिर कुछ लोग तो मानते हैं कि 'हम हल्की जाति के हैं' वे लोकिनिंद्य इंसान, वे हम नहीं हैं। ये सारे देहाध्यास हैं। इनमें से कुछ भी अपना नहीं है। अतः पूर्व के घमंड-वमंड उतार दो और यदि हल्की जात का है तो उसका हल्कापन छोड़ दे तू। इन्फिरियारिटी कॉम्पलेक्स छोड़ दे और सुपीरियारिटी, दोनों ही छोड़ दे। ये तेरी नहीं हैं। अब वे गोत्रकर्म लेकर आए हैं इसीलिए उसमें से 'उन्हें' भावकर्म उत्पन्न होते हैं। ये दादा लोकपूज्य माने जाते हैं क्योंकि वे उच्च गोत्रकर्म बाँधकर लाए हैं। वे भी यहीं पर खपा देने पड़ेंगे। वे भी कहीं साथ में आनेवाले नहीं है।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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