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________________ [२.७] नामकर्म २३७ मुझ से कहते हैं न, 'मुझे यश ही नहीं देते।' मैंने कहा, 'तुझे क्या दें?' बड़े आए यशवाले! यशवाले तो कितनी सँभाल रखते हैं ! यश क्या यों ही मिल जाता है कहीं? सभी तीर्थंकर यशवाले थे, बहत ही यशवाले थे वे तो! क्योंकि अगर सामनेवाले को दुःख हो, तो वह दुःख खुद को होने के बराबर था, इतना जागृतिपूर्वक का जीवन। और तू तो ऐसा कहता है कि वह तो अपने कर्म भोग रहा है। नहीं? पहले कहता था न? प्रश्नकर्ता : ऐसा ही चल रहा था। दादाश्री : लेकिन नियम ऐसा है कि जिसे अपयश मिलना हो, उसे यश नहीं मिलता। एक व्यक्ति ने पूछा कि 'यश कैसे मिलता है?' तब मैंने कहा कि "कैसे किसी का भला हो, कैसे किसी का भला हो?' पूरा दिन लोगों का भला करने के भाव में ही बीते।" वह भावना क्या थी कि इस जगत् में किसी का कुछ काम करो, किसी के काम आओ, ओब्लाइज़ करो वगैरह। अंत में अगर रुपए न हों तो पैर तो हैं न! किसी के लिए चक्कर नहीं लगा सकते? पैर हैं, और भी चीजें हैं, बुद्धि हो तो बुद्धि से ‘ला, मैं तेरे लिए लिख दूँ,' ऐसा कह सकते हैं। इस भावना का फल है। उससे यशनाम कर्म बंधता है और अगर बुरा करने की भावना हो तो काम करने पर भी अपयश मिलेगा। फिर वह कहता है कि 'मैंने काम किया फिर भी मुझे अपयश दे रहे हैं।' अरे, तेरा अपयश लेकर आया है, इसलिए यह अपयश मिल रहा है। तुझे काम करना है और अपयश लेना है। समझने जैसी बात है न यह! कितनी नियनवाली बात है न! यानी कि उसकी मोमबत्ती में अपयश नाम का कर्म है। जगत् कल्याण की भावना से उच्च कर्म नामकर्म तो बहुत बड़ी चीज़ है। ऐसे तरह-तरह के नामकर्म हैं। ऐसे कितने ही प्रकार के कर्म होते हैं कि जिन कर्मों से उच्च नामकर्म बंधता है और ऐसे कर्म भी कि जिनसे नीच नामकर्म बंधता है। प्रश्नकर्ता : उच्च नामकर्मवाले कौन से कर्म हैं? दादाश्री : जगत् का कल्याण करना है वगैरह ऐसे उच्च विचार हों
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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