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________________ २३० आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) यश-अपयश नामकर्म फिर नामकर्म के साथ यशनाम कर्म होता है । यशनाम कर्म अर्थात् कोई भले ही कितने भी चक्कर लगाए और फिर हम से कहेगा 'मैं उनके लिए इतना करता हूँ, फिर भी मुझे अपयश देते हैं।' अरे भाई, तू लेकर आया है अपयश इसलिए अपयश ही देंगे न ! तू भले ही कितने भी चक्कर लगा, फिर भी अपयश ही मिलेगा तुझे । तुझे यश नहीं मिलेगा । और यदि कोई यशनाम कर्म लेकर आया होगा न, तो कुछ भी नहीं किया होगा, फिर भी उसे यश मिलता रहेगा । अतः वह जो लेकर आया है, वही मिलेगा न ! प्रश्नकर्ता : दूसरे संतों की तरह आपके पास भी कितने ही चमत्कारों की घटनाएँ मैंने देखी हैं । कुछ का तो मुझे खुद को भी अनुभव हुआ है। जिन्होंने आपको कभी देखा भी नहीं होता, फिर भी उन लोगों को आपकी फोटो पर से ऐसे कई चमत्कारों का अनुभव होता है। तो ऐसा क्या है आपके पास ? I दादाश्री : मेरे पास चमत्कार है ही नहीं । मैं कोई जादूगर नहीं हूँ । मैं तो ऐसे चमत्कार करता ही नहीं । प्रश्नकर्ता : तो ऐसा कैसे होता है? दादाश्री : ज्ञानीपुरुष हैं, इसलिए हमारा यशनाम कर्म बहुत बड़ा है। सिर्फ हाथ लगा दें, तब भी सामनेवाले का काम हो जाता है और कहता है 'दादा ने यह कर दिया ।' मैंने नहीं किया होता, सिर्फ हाथ लगाने से काम हो जाता है। और अपयश नामकर्म का मतलब क्या है? आप काम करो तो भी अपयश मिलता है, और मैं कुछ भी नहीं करूँ फिर भी यश मिलता रहता है। मैं कुछ करता नहीं हूँ। बिना बात के लोग यश देते रहते हैं, वह एक तरह का यशनाम कर्म है और लोग इसे चमत्कार मानते हैं । चमत्कार जैसी चीज़ इस दुनिया में है ही नहीं । उसकी मैं हंड्रेड परसेन्ट गारन्टी देता हूँ। प्रश्नकर्ता : आप ऐसा कहते हैं, वही सब से बड़ा चमत्कार है । बाकी सब तो पूरा श्रेय ले लेते हैं कि हाँ हमने....... 1
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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