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________________ [२.७] नामकर्म २२३ बाप भी गढ़ने नहीं जाता। अपने आप ही चित्रण हो जाता है। भाव में से चित्रण। नामकर्म है न, वह चित्रण ही करता रहता है। रूप वगैरह, सबकुछ नामकर्म करता रहता है। अब फिर इस नाम कर्म में भी बहुत कर्म हैं। ऐसा शरीर, ऐसी हड्डियाँ, ऐसा सिर, ऐसी आँखें, ऐसी पर्सनालिटी वगैरह बहुत तरह के हैं। यह सभी कुछ जो है, वह इस मोमबत्ती में है। सब मिलाकर इसे नामकर्म कहा है, नाम द्रव्यकर्म! शरीर मिला, वह भी नामकर्म से प्रश्नकर्ता : हाँ। तो क्या इसमें कुछ पूर्व संचित होता है? दादाश्री : हाँ, पूर्व संचित । नामकर्म का मतलब जो सेटल हो चुका है। नामकर्म अर्थात् चितारा (चित्रित किया हुआ) कर्म कहलाता है। यानी कि डिज़ाइन वगैरह सबकुछ उसी का। अन्य किसी कर्म का नहीं है यह। कपाल इतना बड़ा, कान ऐसे इतने बड़े, नाक बड़ा, अंग-उपांग वगैरह, सारी डिज़ाइन उसके हाथ में है। अत: डिज़ाइनर कहते हैं इसे, नामकर्म को। आपको समझ में आया न कि नामकर्म क्या करता होगा? इन सभी के नाक अलग-अलग होते हैं या एक ही तरह के होते हैं? प्रश्नकर्ता : अलग-अलग। दादाश्री : तो क्या ये साँचे में से निकाली हुई नहीं हैं। क्या बाप जैसी ही नाक होती है? यदि सभी की बाप जैसी होती तो ऐसा लगता कि एक ही साँचे में ढाली गई है। लेकिन ऐसा नहीं है। यह जो नामकर्म है, वह साँचे को गढ़ता है। अलग-अलग नामकर्म और अलग-अलग साँचे। यदि एक ही तरह के लोग होते न, तो न जाने कौन किस के घर में घुस जाता और कौन किस के घर में घुस जाता है, कोई ठिकाना ही नहीं रहता। एक ही तरह के नहीं हैं न? खुद के माँ-बाप तुरंत ढूँढ लेता है न? वाइफ को तुरंत ढूँढ लेता है न, हज़बेन्ड को तुरंत ही ढूँढ लेती है न? यह चेहरा-वेहरा वगैरह सब, यह शरीर द्रव्यकर्म ही है। नहीं तो फिर
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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