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________________ [२.६] वेदनीय कर्म २१९ प्रश्नकर्ता : खाँसी वगैरह आती है। दादाश्री : खाँसी को तो मैं उपकारी मानता हूँ। अच्छा हुआ, रात को जगाती है न! ऐसी हमारी इच्छा है कि हमें रात को जागना है। जैसे भी हो सके वैसे जागृत रहना है, ऐसी इच्छा है। वह तो बल्कि जगाए रखती है, इसलिए मैंने इसे गुणकारी माना हुआ है। जिसे गुणकारी मानें उसकी वजह से दु:ख होता ही नहीं है न! हाँ, जब दाढ़ दुःखती है तब ऐसा होता है। और अभी तीन दिन के लिए कच्छ गया था तब लिवर का दर्द शुरू हो गया था। तब अशाता-वेदनीय उत्पन्न हो गई थी लेकिन वेदनीय को 'मैं' बस जान रहा था, बस इतना ही। प्रश्नकर्ता : दर्द नहीं होता? दादाश्री : दर्द होता है लेकिन 'आत्मा' को कुछ नहीं होता। अतः जब तक 'हम' 'आत्म स्वभाव' में रहें, तब तक कोई असर नहीं होता। दर्द तो होता है। तीन दिनों तक रहा था, रात को नींद भी नहीं आई थी तीन दिनों तक। अंदर से जगते रहते थे, पलभर को सो जाते थे। 'दादा बैठे हुए हैं,' ऐसा 'हम' जाना करते थे। वेदनीय तो तीर्थंकरों को भी रहती है, तो फिर और किसे नहीं होगी? लेकिन उनमें अशाता कम रहती है। हमारा देखो न, यह महीना ऐसा आया कि दादा का एक्सिडेन्ट का टाइम आया। फिर यह आ गया! जैसे दीया बुझनेवाला हो न, ऐसा हो गया। प्रश्नकर्ता : ऐसा कुछ नहीं होगा दादा। दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं है। हीरा बा चले गए तो क्या ये नहीं जाएँगे? यह तो कौन सा वेदनीय आया? प्रश्नकर्ता : अशाता वेदनीय। दादाश्री : लोग समझते हैं कि हमें अशाता वेदनीय है लेकिन वेदनीय हमें स्पर्श नहीं करता, तीर्थंकरों को भी स्पर्श नहीं करता। हमें तो हीरा बा के जाने का खेद नहीं है, हम पर असर ही नहीं होता न! कई लोगों
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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