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________________ होती रहती है। हमें तो मात्र उसे 'देखते' ही रहना है। प्राकृत गुणों को 'देखते' ही रहना है। टेपरिकॉर्डर में जो कुछ रिकॉर्ड करके लाए हैं, वह पूरे दिन बजता ही रहता है, उसे भी ‘देखते' रहना है। शुद्धात्मा होकर देखने से प्रकृति शुद्धत्व प्राप्त करती है। खुद की प्रकृति को 'देखना', वही यथार्थ ज्ञाता-दृष्टापना है। बाहर का देखना, वह नहीं। अंदर मन-बुद्धि-चित्तअहंकार सभी क्या कर रहे हैं, उसे देखते ही रहना है फिल्म की तरह। प्रकृति के ज्ञेयों के प्रकार हैं, स्थूल ज्ञेय, सूक्ष्म और सूक्ष्मतर। पहले स्थूल ज्ञेय। फिर बीच के हिस्से में सूक्ष्म ज्ञेय। क्रोध-मान-माया-लोभ सूक्ष्म ज्ञेय कहलाते हैं। उससे भी आगे सूक्ष्मतर प्रकृति में तो जो सिर्फ दादाश्री को ही दिखाई दे सकें, वे हैं। खुद की प्रकृति तो दिखती ही है लेकिन सामनेवाले की प्रकृति भी अब इसके बाद क्या करेगी, अब उसके बाद क्या करेगी....वह भी आगे से आगे लेकिन एक्जेक्ट दिखाई देता है। सभी कुछ, टाइम टु टाइम जो कुछ करता है वह दिखाई देता है। प्रकृति में जो कषाय होते हैं, वे खुद को पसंद नहीं हैं, खुद का अभिप्राय उससे अलग हो जाए तो वह संयमी कहलाता है। असंयमी तो प्रकृति में तन्मयाकार रहकर काम करता है। सब से अंतिम स्टेज है, ज्ञातादृष्टा रहना। लेकिन अगर वैसा नहीं रह पाए फिर भी प्रकृति जो करे उस पर खुद का अभिप्राय उससे अलग रखे, तो उसे ज्ञाता-दृष्टा जैसा फल ही माना जाएगा। __ शुद्धात्मा हो जाने के बाद अहंकार तथा मालिकीभाव खत्म हो जाता है। तब फिर जो बाकी बचे, वे दिव्यकर्म माने जाते हैं। प्रकृति का फोर्स ज़्यादा हो तब वह उसे देखना भुलवा देती है। वहाँ पर जैसे-जैसे आज्ञा पालन करते जाएँगे वैसे-वैसे आत्मशक्ति प्रकट होती जाएगी। हम शुद्धात्मा हो गए है। अब प्रकृति क्या कहती है कि 'आप तो शुद्ध हो गए, अब आपको हमें शुद्ध करना है क्योंकि आपने ही हमें बिगाड़ा है!' तभी दोनों मुक्त हो सकेंगे! 30
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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