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________________ [२.५] अंतराय कर्म २०३ प्रश्नकर्ता : निश्चय ही पुरुषार्थ है न? दादाश्री : हाँ निश्चय, कि मुझे ऐसा करना ही है । प्रश्नकर्ता : लेकिन सभी के निश्चय नहीं फलते । दादाश्री : वह फले या न फले, वह हमें नहीं देखना है । हमें तो निश्चय करना है! अगर निश्चय नहीं करोगे तो कोई काम होगा ही नहीं। खुद का अनिश्चय ही अंतराय है । निश्चय करने से अंतराय टूट जाते हैं। आत्मा का निश्चय हो जाए तो सभी अंतराय टूट ही जाएँगे न ! फर्क, निश्चय और इच्छा में प्रश्नकर्ता : आपने आप्तवाणी में ऐसा कहा है कि 'विल पावर से अंतराय टूटते हैं' और दूसरी तरफ हम जानते हैं कि इच्छा करने से तो अंतराय पड़ते हैं। दादाश्री : इच्छा नहीं करनी है, निश्चय करने को कहा है। निश्चय किया तो चाहे कैसा भी अंतराय हो, टूट ही जाएगा। प्रश्नकर्ता : हम किसी चीज़ की सतत इच्छा करें, निश्चय करें कि यह चीज़ मुझे प्राप्त करनी ही है, तो फिर क्या ऐसा नहीं होगा कि इस इच्छा से अंतराय पड़ेंगे? दादाश्री : निश्चय होना चाहिए, इच्छा का प्रश्न ही कहाँ आया? प्रश्नकर्ता: निश्चय और इच्छा में क्या फर्क है? वह ज़रा समझाइए न ! दादाश्री : बहुत फर्क है । इच्छा का मतलब तो खुद की मनचाही चीज़ और निश्चय तो एक्ज़ेक्टनेस है । अनिच्छा अर्थात् अच्छी न लगनेवाली (नापसंद) चीज़। इच्छा अर्थात् अच्छी लगनेवाली (पसंदीदा ) चीज़ | और निश्चय का और इसका कुछ लेना-देना नहीं है । निश्चय का मतलब तो निर्धार किया हमने। प्रश्नकर्ता: निश्चय और इच्छा के बारे में उदाहरण देकर समझाइए न ! दादाश्री : इसमें कैसा उदाहरण भला? मनचाही चीज़ यानी हमें
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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