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________________ [२.५] अंतराय कर्म दादाश्री : अगर नहीं आ पाते हैं तो वह अंतराय नहीं है । वह अंतराय का फल है। अगर नहीं आ पाते हैं, तो वह पहले के पड़े हुए अंतरायों का फल है। उन्हें तो भोगना ही पड़ेगा न ! प्रश्नकर्ता : वे अंतराय किस तरह पड़ गए ? २०१ दादाश्री : खुद ने ही डाले हुए हैं। रोज़-रोज़ जाकर क्या करना है ! अब अंदर ऐसा होता है कि 'दो दिन नहीं गए तो क्या है?' इसी से अंतराय पड़ा! प्रश्नकर्ता: कोई दादा के सत्संग में आ रहे हों, उन्हें अगर कोई ऐसा कहे कि, 'आप रोज़-रोज़ वहाँ क्या काटने जाते हो, एक ही बात सुनने के लिए। तो फिर उसे अंतराय पड़ेंगे न?' दादाश्री : हाँ, तो उससे वह अंतराय डालता है । इस तरह से रोका, वही अंतराय है। सीधी बात ही करो न आप, छोटा बच्चा समझे ऐसी ! रोकना अर्थात् अंतराय। आपने जितने रुकावटें डाली हैं, उतनी ही आपकी रुकावटें हैं। परमात्म ऐश्वर्य रुका है इच्छा से प्रश्नकर्ता : हमें जिस चीज़ की बहुत ही इच्छा हो, वह चीज़ नहीं मिलती। फिर उसका दुःख रहा करता है । दादाश्री : जिस चीज़ की बहुत इच्छा हो न, तो वह चीज़ मिलेगी तो सही लेकिन अत्यंत इच्छा होने की वजह से देर से मिलती है और अगर इच्छा कम हो जाए तो जल्दी मिल जाती है । इच्छा बल्कि अंतराय डालती है। प्रश्नकर्ता : जिस चीज़ की हमें इच्छा हो, तो क्या वह चीज़ हमें मिलेगी ही नहीं? दादाश्री : मिलेगी, लेकिन जब इच्छा कम हो जाएगी तब मिलेगी । इच्छावाली चीज़ मिलेगी तो सही । इच्छा करने से ही अंतराय हैं । जैसे-जैसे इच्छाएँ कम होती जाती हैं, वैसे-वैसे अंतराय टूटते जाते हैं । उसके बाद सभी चीजें प्राप्त हो जाती हैं । जो होना होता है, उसकी पहले इच्छा उत्पन्न
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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