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________________ १९६ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) तो वहाँ पर खुद भी टीका-टिप्पणी करने लगता है। ऐसा नहीं कि 'एक ध्येय और एक नियम।' ऐसा कुछ नहीं है। इस ओर भी चलता है और उस ओर भी चलता है ! इसलिए, बेहद ऐसे सारे अंतराय पड़ जाते हैं। जिसका निश्चय है, वहाँ अंतराय टूट जाते हैं। ऐसे टूटे हैं कई दिनों में। एक व्यक्ति ने तो मुझसे कहा कि, 'छः साल से मिलना था, लेकिन आप आज मिले हैं।' तब फिर कितने अंतराय रहे होंगे? बोलो! और फॉरेनवाले एक ही बार याद करें और मिल जाते हैं। अंतराय नहीं हैं और ज़रूरत से ज्यादा अक्लमंदी भी नहीं है न? वाईज़ की क़ीमत है या ओवर वाइज़ की? प्रश्नकर्ता : वाइज़ की क़ीमत ज़्यादा है। ओवर वाइज़ तो बिगाड़ता है खुद का! जिस दिन ज्ञान दिया न, उस दिन मुझे ऐसा लगा कि 'प्रत्यक्ष ज्ञानी मिल गए।' दादाश्री : प्रत्यक्ष ज्ञानी ही नहीं लेकिन भगवान मिल गए, प्रत्यक्ष परमात्मा ही मिल गए। जिनके लिए कृपालुदेव ने कहा है न, 'देहधारी रूप में परमात्मा।' प्रतिक्रमण, अंतराय के.... प्रश्नकर्ता : मेरे तो बहुत अंतराय हैं। पढ़ने की किताब लूँ तो नींद आ जाती है। दादाश्री : ऐसे सारे अंतराय कर्म लेकर आए हैं न, लेकिन उसके लिए हमें रोज़ प्रतिक्रमण करना है कि 'हे भगवान! मेरे ऐसे अंतराय कर्म दूर कीजिए। अब मेरी ऐसी इच्छा नहीं है।' 'पहले कोई गलती की होगी, तो उससे ये अंतराय आए हैं लेकिन अब गलती नहीं करनी है' ऐसा करके रोज़ भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए। डलते हैं ऐसे अंतराय ज्ञान-दर्शन के लिए प्रश्नकर्ता : दर्शनांतराय और ज्ञानांतराय किससे डलते हैं? दादाश्री : हर एक बात में टेढ़ा बोलता है न! ये साधु महाराज
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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