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________________ [२.४] मोहनीय कर्म १५९ ये ज्ञानावरण और दर्शनावरण, इन दो आवरणों की वजह से इंसान न जाने कैसी-कैसी पहाड़ियों पर चढ़ेंगे और कैसे-कैसे गड्ढों में गिरेंगे, यही मोहनीय! इन दोनों का परिणाम है मोहनीय। इसीलिए मोह है न! नहीं तो बेचारे को कहीं मोह होता होगा! अंधे इंसान को उल्टा दिखता है, इसमें उसका क्या दोष! __ वे तो विनाशी सुख हैं जबकि यह तो अविनाशी सुख है। मोह कितने प्रकार के हैं? अनेक प्रकार के हैं न? और उसमें भी 'मैं अनंत सुख का धाम हूँ' ऐसा कहता है, 'मुझे अन्य किसी मोह की ज़रूरत नहीं है।' यह तो फँस गया है। उसमें से निकल जाना है अब। इसीलिए हम बोलते हैं कि 'मोहनीय अनेक प्रकार की होने से, उनके सामने मैं अनंत सुख का धाम हूँ।' भरे हुए भारी मोहनीय कर्म प्रश्नकर्ता : तो ये जो आठ कर्म हैं, इनमें से कौन सा कर्म सब से कठिन और बाधक है? दादाश्री : मोहनीय कर्म। और क्या? प्रश्नकर्ता : मोहनीय कर्म से मुक्त होना है, फिर भी अपने परिबल ही ऐसे हैं कि मोहदशा में से ज़रा सा भी मुक्त नहीं हो सकते। दादाश्री : मोहनीय से कोई छूट ही नहीं सकता न! ज्ञानीपुरुष की कृपा हुए बिना मोहनीय नहीं छूट सकता। फिर चाहे यहाँ गिरे या कहीं भी गिरे, समुद्र में गिरे या कुछ भी करे लेकिन कृपा के बिना मोहनीय नहीं छूट सकता। सिर्फ मोहनीय ही ऐसा है जो कृपा से छूट सकता है। बाकी का सबकुछ अपने आप थोड़ा बहुत छोड़ा जा सकता है लेकिन मोहनीय नहीं छूटता। मोहनीय अर्थात् मूर्छा, मूर्छित हो गया है। उसे तो जब ज्ञानीपुरुष भान में ले आएँ, तभी न! ज्ञानी के बिना तो कोई भी काम नहीं हो सकता। वह है अनंत कर्मों में, अफसर के रूप में इसलिए श्रीमद् राजचंद्र ने कहा है न
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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