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________________ [१.१०] प्रकृति को निहार चुका, वही परमात्मा १२९ जो पहले हो चुका है, उसमें लोगों की सारी प्रकृति दिखती है, खुद की प्रकृति दिखती है, अब एडजस्टमेन्ट किस तरह से लें? वह सब दिखता है। दादाश्री : हाँ, सबकुछ दिखेगा। प्रकृति को पहचान लेता है न। खुद पुरुष हुआ इसलिए प्रकृति को पहचान लेता है, नहीं तो प्रकृति को पहचान ही नहीं सकते न! उसका निरीक्षण करता है, प्रकृति का पृथक्करण करता है। अंदर गुण होते हैं, उन्हें भी ढूँढ निकालता है। फिर यों हर एक की प्रकृति होती है न और उस प्रकृति को खपाए तो भगवान बन जाए। अगर उस प्रकृति को खपा दे, उस प्रकृति को जाने तो भगवान बनने की शुरुआत करता है। अगर खुद की प्रकृति को खुद जाने तो भगवान बनने की शुरुआत हो गई और फिर उसे खपा दे, जानने के बाद समभाव से निकाल करके। प्रकृति को देखे, क्या-क्या किसके साथ, चंदूभाई दूसरों के साथ क्या कर रहे हैं? उसे खुद देखता है। लड़ रहा हो तो लड़ते हुए भी देखता है। प्रश्नकर्ता : फिर दादा, उसे खपाएँ किस तरह? दादाश्री : प्रकृति को देखता रहे, उसी को खपाना कहते हैं। व्यवहार में खपाना अर्थात् समभाव से खपाना। मन को विचलित नहीं होने देना। कषायों को मंद करके बैठे रहना और खपाते रहना, उसी को खपाना कहते हैं। यों अंतिम प्रकार का खपाते हैं। यह तो निबेड़ा ही आ गया, देखते रहे उसे। भगवान महावीर एक ही पुद्गल को देखते रहते थे। पुद्गल किस तरफ जा रहा है, बार-बार कहाँ जा रहा है? उसी को देखते रहते थे। इसलिए हम कहते हैं कि 'खुद की प्रकृति को देखो, निहारो!' किसी भी मनुष्य में, तीर्थंकरों में भी प्रकृति होती है। उसका निबेड़ा लाए बगैर चारा ही नहीं है। प्रश्नकर्ता : सिद्ध दशा हो जाने के बाद, वहाँ प्रकृति नहीं रहती? दादाश्री : वहाँ नहीं मिलती। निर्वाण होने पर प्रकृति चली जाती
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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