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________________ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) दादाश्री : प्रतिक्रमण से । दाग़ दिखता जाए और हम प्रतिक्रमण करते जाएँ। ११२ जो प्रकृति स्वभाव को जाने, वह ज्ञायक प्रकृति के स्वभाव को निहारना, वही ज्ञायकता है। वह भी दूसरों की नहीं, खुद की ही प्रकृति । प्रकृति स्वभाव को वेदे तो वेदकता कहलाती है और जब प्रकृति स्वभाव को जाने तो वह ज्ञायकता कहलाती है अनादि से परिचय है न, इसलिए ! सिर दु:खे तो वास्तव में तो खुद उसे जानता ही है, बाकी कुछ भी नहीं करता और ज्ञायकता तो आपको दी गई है कि प्रकृति को देखो। तो प्रकृति का सिर दुःखे तो उसे देखना है। उसके बजाय यदि ऐसा रहे कि मुझे दुःख रहा है तो वहाँ पर अजागृति हो जाती है। इससे फिर दुःखना शुरू हो जाता है । और अगर जाने तो यह किसे दुःख रहा है, वह जानता ही है। सामनेवाले के दुःख को भी जानता है। I I अपना विज्ञान बहुत अलग तरह का है । कई बार हम भी, हमसे भी दुःख से अलग नहीं रहा जा सकता कुछ चीज़ों में। कुछ चीज़ों में अलग ही रहता है लेकिन कुछ प्रकार के दुःखों में अंदर चिपका रहता है, किसी जगह पर। चिपका रहता है, उसे हम उखाड़ते रहते हैं । प्रश्नकर्ता : वहाँ ज़्यादा उपयोग रखते हैं? दादाश्री : उपयोग रखते हैं ज़्यादा, लेकिन फिर भी उपयोग रखना पड़ता है, जबकि बाकी सब में सहज उपयोग रहता है। दाँत दु:खे तब खुद सिर्फ जानता ही है। जाननेवाला तो सिर्फ जानता ही रहता है। अंदर दुःखता नहीं है, दुःखता है प्रकृति को, चंदूभाई को दुःखता है और खुद कहता है कि 'मुझे दुःखा' इसलिए दर्द उसे पकड़ लेता है, जैसा चिंतन करे, तुरंत वैसा ही बन जाता है लेकिन अब इसमें बहुत गहरे उतरने के लिए मना करता हूँ । उसके लिए तो अगला एक जन्म है ही न। सबकुछ निकल जाएगा।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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